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222... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... आवश्यक प्रतीत होता है। इसी के साथ वैयक्तिक क्रियाविधियों में एकरूपता बनी रहे और सामान्य जनसमुदाय में वादविवाद, संशय आदि को स्थान न मिले, यह भी आवश्यक है। अतः इन दृष्टियों से भी सामायिक की कालमर्यादा मनोवैज्ञानिक सिद्ध होती है।
जहाँ तक आगम साहित्य का प्रश्न है, उसमें सामायिक के लिए निश्चित काल का कोई उल्लेख नहीं है। सामायिक के पाठ में भी काल मर्यादा के लिए 'जावनियम' शब्द का ही प्रयोग हुआ है 'मुहूर्त' आदि का नहीं। इस सम्बन्ध में योगशास्त्र ही एक ऐसा उपलब्ध ग्रन्थ है, जिसमें एक मुहर्त तक समभाव में रहने को सामायिक कहा है।19
यहाँ प्रसंगवश यह उल्लेखनीय है कि जो लोग दो या तीन सामायिक एक साथ ग्रहण करते हैं, उनकी वह सामायिक काल की अपेक्षा उचित नहीं है। पौषधव्रत और देशावगासिकव्रत की बात अलग है, क्योंकि इन व्रतों का काल पूर्व से ही अधिक बताया गया है, किन्तु सामायिक एक-एक करके ग्रहण करना चाहिए। वर्तमान में दो या तीन सामायिक एक साथ ग्रहण करने का विशेष प्रचलन है, परन्तु वह कितना उचित है यह विचारणीय है?
सामायिक काल के संदर्भ जिनलाभसूरि ने आत्मप्रबोध में लिखा है कि इस सावधयोग के प्रत्याख्यानरूप सामायिक का मुहूर्त्तकाल शास्त्र सिद्धान्तों में नहीं है, लेकिन किसी भी प्रत्याख्यान का जघन्यकाल नवकारसी के प्रत्याख्यान के समान एक मुहूर्त का होना चाहिए।
सामायिक के सम्बन्ध में यह भी समझने योग्य है कि सामायिक लेने का पाठ उच्चारित करने के बाद ही 48 मिनट गिनना चाहिए और उतना समय पूर्ण होने पर ही सामायिक पूर्ण करने की विधि करनी चाहिए। विविध दृष्टियों से सामायिक का महत्त्व
सामायिक मोक्षप्राप्ति का प्रमुख अंग है। सिद्ध-अवस्था में भी सामायिक सदैव प्रवर्तित रहती है। जैन-ग्रन्थों में सामायिक के महत्व को आंकने वाले बहुत से उद्धरण हैं। आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थपिण्ड कहा है।20 उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगीरूप जिनवाणी का साररूप बताया है। जिस प्रकार पुष्पों का सार गंध है, दूध का सार घृत है, तिल का सार तेल है, इक्षुखण्ड का सार