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________________ अध्याय - 4 सामायिक व्रतारोपण विधि का प्रयोगात्मक अनुसंधान मानव जीवन का लक्ष्य है श्रेयस् की साधना । श्रेयस् की साधना ही आत्मा की आराधना है। ज्ञान एवं चारित्र आत्मा के धर्म हैं। इन्हें आगम भाषा में श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की संज्ञा दी है। श्रेयस् की साधना सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र से होती है। श्रेयस साधना का सरलतम उपाय है - सामायिक । इसे जैन साधना का प्राण तत्त्व माना गया है। यह जैन आचार का सारभूत कर्त्तव्य है। सामायिक का प्रावधान श्रमण और श्रावक दोनों के लिए परमावश्यक है। जो भी आत्माएँ साधना मार्ग पर आरूढ़ होती हैं, वे चाहे श्रावक हो या मुनि, सर्वप्रथम सामायिकव्रत को ही अंगीकार करती हैं। यहाँ तक कि तीर्थंकर बनने वाली आत्माएँ भी सामायिक चारित्र के द्वारा ही कर्मों की निर्जरा करती हैं। जैन दर्शन में पाँच प्रकार के चारित्र कहे गए हैं, उनमें प्रथम सामायिक चारित्र है।' यह चारित्र सभी तीर्थंकरों के शासनकाल में विद्यमान रहता है, शेष चार चारित्र में छेदोपस्थापनीय चारित्र विद्यमान नहीं भी रहता है। जैनश्रमण के लिए सामायिक प्रथम चारित्र है और जैन गृहस्थ साधकों के लिए सामायिक चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। जैनधर्म में इस साधना के लिए सभी को समान स्थान प्राप्त है। यह साधना किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर नहीं है। जैन परम्परा की यह साधना इतनी उत्तम और उत्कृष्ट है कि सभी साधनाओं का इसमें समावेश हो जाता है। इस साधना का मुख्य उद्देश्य है राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करना, समस्त जीवों के प्रति समभाव रखना और क्रोधादि कषायभावों को क्रमशः मन्द करना। यह साधना जब सध जाती है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। हम प्रत्यक्ष में सुनते हैं, पढ़ते हैं कि भगवान् महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक समत्व की साधना की थी। उस साधना काल
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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