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________________ 198... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... कहा जा सकता है कि अहिंसा व्रत का पालन वैर और विरोधवृत्ति का उच्छेद करने हेतु किया जाता है। सत्यव्रत छल-कपट आदि कुसंस्कारों का विनाश करने के उद्देश्य से स्वीकारा जाता है। अचौर्यव्रत का परिपालन शरीर पर से अपने स्वामित्वभाव को हटाने एवं सामाजिक-स्तर को उन्नत बनाने के दृष्टिकोण से किया जाता है। अचौर्य का अर्थ किसी भी वस्तु को बिना आज्ञा ग्रहण नहीं करना इतना मात्र नहीं, अपितु स्व एवं पर के भेद को समझना भी है। अचौर्यव्रत का सम्बन्ध अध्यात्म से जुड़ा हुआ है। यदि सत्यदृष्टि से आकलन करें तो हम बहुत पुराने चोर हैं, क्योंकि जन्म-जन्मान्तरों से हम शरीर को अपना मानते हए चले आ रहे हैं। शरीर एवं आत्मा में भेदबुद्धि करना ही अचौर्यव्रत है। ब्रह्मचर्यव्रत का उद्देश्य अध्यात्म शक्तियों को संगृहित कर ब्रह्म(परमात्म) स्वरूप को उपलब्ध करना है। अपरिग्रह-व्रत का प्रयोजन इच्छाओं एवं तृष्णाओं का अन्त करना तथा निर्भयता एवं चैतसिक प्रसन्नता को प्रकट करना है। दिग्व्रत (दिशाओं का परिमाण) इच्छाओं को सीमित करने के लिए स्वीकारा जाता है। भोगोपभोगपरिमाणव्रत पदार्थजन्य आसक्ति को न्यून करने के लिए ग्रहण किया जाता है। अनर्थदण्डविरमणव्रत निरर्थक एवं हिंसक कार्यों से बचने के लिए स्वीकार किया जाता है। जड़-चेतनमय समस्त पदार्थों के प्रति समभाव बना रहे, इस प्रयोजन से सामायिकव्रत की आराधना की जाती है। सामायिक की स्थिरता एवं सांसारिक-व्यापारों से निवृत्त होने के लिए पौषधोपवासव्रत किया जाता है। कषायों को क्षीण करने एवं अनावश्यक पापास्रवों का अवरोध करने के लक्ष्य से देशावगासिकव्रत स्वीकारा जाता है तथा मुनियों की शुश्रुषा, गृहस्थ धर्म का कर्त्तव्य एवं सामाजिक धर्म का दायित्व निर्वहन करने के लक्ष्य से अतिथिसंविभागवत किया जाता है। इस व्रतारोपण संस्कार में परिमाण-पत्रक के माध्यम से परिग्रह आदि की विशेष मर्यादाएँ करवाई जाती है इसे टिप्पणक, टिप्पणी या परिमाणटिप्पनक कहते हैं। यहाँ टिप्पनक का तात्पर्य परिग्रह के सम्बन्ध में की जाने वाली मर्यादा के सूची पत्र से है। प्राचीनकाल में हस्तलिखित प्रतियों के पृष्ठ रहते थे। आज भी प्राचीन भंडारों में ये पत्र मौजूद हैं। आजकल परिग्रहपरिमाण की छपी किताबें होती हैं, और उसमें खाने बने हुए होते हैं। व्रतग्राही स्वेच्छानुसार मर्यादाएँ निर्धारित करता है। यह मर्यादापत्र गुरू के समक्ष भरा जाता है। सुस्पष्ट है कि
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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