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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 197
की संख्याओं को लेकर किंचिद् भिन्नता है। इस अन्तर का स्पष्टीकरण सम्यक्त्वव्रतारोपणविधि में कर चुके हैं। 130
अचलगच्छ आदि परम्पराओं में यह विधि किस प्रकार सम्पन्न की जाती है ? हमें इस विषय से सम्बन्धित न तो मौलिक और न ही संकलित ग्रन्थ उपलब्ध हो पाए हैं, किन्तु अचलगच्छ परम्परा के आचार्य गुणसागरसूरीश्वरजी म.सा., पायच्छंदगच्छीय साध्वी ऊँकारश्रीजी म.सा. की सुशिष्या साध्वी सिद्धांतरसाजी, त्रिस्तुतिकगच्छीय साध्वी मयूरकलाजी के साथ हुई मौखिक चर्चा के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि इनमें स्तुति-स्तोत्र आदि पाठ भेद एवं सामान्य अन्तर के साथ खरतरगच्छ की परम्परानुसार ही यह विधि की जाती है।
स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में नन्दी, कायोत्सर्ग, वासदान, प्रदक्षिणा आदि विधान नहीं किए जाते हैं, केवल व्रतधारी को प्रतिज्ञा-पाठ का उच्चारण करवाया जाता है। प्रतिज्ञा पाठ इस आम्नाय में प्रचलित ‘श्रावकव्रतआराधना' आदि पुस्तकों में उल्लिखित हैं। सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करवाते समय काष्ठ, पत्थर, लेप्य आदि की प्रतिमाओं को देवरूप मानने का परित्याग करवाते हैं।
दिगम्बर परम्परा में प्रचलित बारहव्रत विधि से सम्बन्धित कोई कृति सम्प्राप्त नहीं हो पाई है, किन्तु मुनि प्रवर श्री तरूणसागरजी म.सा. के साथ हुई चर्चा से इतना स्पष्ट होता है कि इनमें श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की तरह नन्दिरचना, वासदान, कायोत्सर्ग, प्रदक्षिणा आदि की क्रियाएँ नहीं होती है, केवल व्रतग्राही की संकल्पनापूर्वक व्रतदंडक के उच्चारण करवाए जाते हैं। वन्दन, प्रत्याख्यान आदि की सामान्य विधि अवश्य होती है। बारहव्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानों के प्रयोजन
बारहव्रत आरोपण विधि के समय मुख्यतया जिनप्रतिमा की पूजा, अक्षतयुक्त अंजलिपूर्वक प्रदक्षिणा, वासचूर्ण का अभिमन्त्रण, व्रतग्राही के उत्तमांग(मस्तक) पर वासदान, देववन्दन, कायोत्सर्ग, थोभवंदन, प्रत्याख्यान आदि अनुष्ठान किए जाते हैं। तत्संबंधी सामान्य प्रयोजन द्वितीय अध्याय में कह चुके हैं।
यदि बारहव्रत के मूलभूत प्रयोजनों को लेकर विचार करें, तो साररूप में