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________________ 194... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... पाणाइवायं संकप्पओ निरवराहं पच्चक्खामि। जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि न कारवेमि। तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्याणं वोसिरामि।' भावार्थ- हे भगवन् ! मैं आपके समीप दो करण-तीन योग पूर्वक यावज्जीवन के लिए निरपराधी त्रसजीवों की हिंसा न करने का प्रत्याख्यान करता हूँ तथा अतीतकाल में की गई हिंसा का प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ और अपनी आत्मा को उस हिंसा से दूर हटाता हूँ। 2. स्थूलमृषावादविरमण व्रत- 'अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं मुसावायं जीहाच्छेयाइहेउयं कन्नालियाइपंचविहं पच्चक्खामि। दक्खिन्नाइअविसए अहागहियभंगएणं, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।' भावार्थ- हे भगवन् ! मै आपके समीप में कन्यालीक आदि पाँच प्रकार के स्थूल असत्य का यावज्जीवन के लिए दो करण तीन योगपूर्वक त्याग करता हूँ। यह प्रतिज्ञा दाक्षिण्यतादि के कारणों को छोड़कर है। 3. स्थूलअदत्तादानविरमण व्रत- 'अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे थूलगं अदिन्नादाणं खत्तखणणाइयं चोरंकारकरं रायनिग्गहकारयं सचित्ताचित्तवत्थुविसयं __पच्चक्खामि, जावज्जीवाए.....................वोसिरामि।' भावार्थ- हे भगवन् ! मैं आपके समीप सेंध लगाकर, ताला खोलकर आदि स्थूल चोरी करने का यावज्जीवन के लिए दो करण तीन योगपूर्वक त्याग करता हूँ। 4. स्वदारासन्तोष व्रत- 'अहं णं भंते तुम्हाणं समीवे ओरालियवेउव्वियभेयं थूलगं मेहुणं पच्चक्खामि, अहागहियभंगएणं। तत्थ दुविहं तिविहेणं दिव्वं, तेरिच्छं एगविह तिविहेणं, माणुस्सयं एगविह एगविहेणं वोसिरामि।' भावार्थ- हे भगवन् ! मैं आपके समीप देवता सम्बन्धी मैथुन का दो करण तीन योगपूर्वक, तिर्यन्च सम्बन्धी मैथुन न करने का एक करण तीन योगपूर्वक, और मनुष्य सम्बन्धी मैथुन न करने का एक करण एक योगपूर्वक त्याग करता हूँ।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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