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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...177 व्रत का पालन करता है, वहाँ वे व्रत अणव्रत की संज्ञा प्राप्त करते हैं। __ जैनधर्म की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि श्रावकों के व्रतों में अपवादों का कोई इत्थंभूत या एक रूप नहीं है। एक ही अहिंसाव्रत अनेक आराधकों द्वारा अनेक प्रकार के अपवादों के साथ स्वीकार किया जा सकता है। विभिन्न व्यक्तियों की क्षमता एवं सामर्थ्य भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं, उत्साह या आत्मबल भी एक जैसा नहीं होता है। अतएव अपवाद स्वीकार करने में प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण स्वातन्त्रय है उस पर अपवाद बलात् आरोपित नहीं किए जा सकते। इससे कम-अधिक सभी तरह की शक्तिवाले साधनोत्सुक व्यक्तियों को साधना में आने का अवसर मिल जाता है। फिर साधक धीरे-धीरे अपनी शक्तियों को विकसित करता हुआ आगे बढ़ता जाता है और अपवादों को कम करता जाता है। इस तरह की साधना करता हुआ साधक शनैः-शनै: श्रमणोपासक की भूमिका से श्रमण की भूमिका में प्रवेश कर लेता है। यह गहरा मनोवैज्ञानिक-तथ्य है।
गृहस्थ साधना में जैन धर्म की यह पद्धति निःसन्देह बेजोड़ है। अतिचारवर्जन आदि द्वारा उसकी मनोवैज्ञानिकता और गहरी हो जाती है, जिससे व्रती का जीवन एक पवित्र रूप लेकर निखार पाता है।106 द्वादशव्रत के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्पराओं के मतभेद ___श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराएँ जैन श्रावक के लिए बारहव्रत का विधान करती हैं। व्रतों की संख्या के सम्बन्ध में दोनों एकमत हैं। यदि बारहव्रत के नामों एवं गणनाक्रम को लेकर विचार करें, तो गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में किंचित् भिन्नता ज्ञात होती है। सामान्यतया श्रावक के बारहव्रतों का विभाजन निम्न रूप में हुआ है- पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत।
श्वेताम्बर-परम्परा की दृष्टि से उपासकदशांगसूत्र में पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है। गुणव्रतों का शिक्षाव्रतों में ही समावेश कर लिया गया है। आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में भी बारहव्रतों का विभाजन तत्त्वार्थसूत्र के समान ही किया गया है। दिगम्बर-परम्परा की दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द का चारित्रपाहुड़, आचार्य अमृतचन्द्र का पुरूषार्थसिद्धयुपाय, पं.आशाधर का सागारधर्मामृत आदि में द्वादशव्रतों का विभाजन अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत