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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...169 कहलाता है। देशावगासिक व्रत में देश और अवकाश-ये दो शब्द हैं। इसके दो अर्थ किए जा सकते हैं- 1. देश-कुछ, अवगास-स्थान अर्थात विस्तृत दायरे को संक्षिप्त करना देशावगास है।
2. स्थानविशेष-जीवन पर्यन्त के लिए गृहीत दिशापरिमाण अर्थात क्षेत्रमर्यादा के एक अंशरूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा निर्धारित करना देशावगास है। यह व्रत क्षेत्र मर्यादा को सीमित करने के साथ-साथ उपलक्षण से उपभोग-परिभोग की अन्य मर्यादाओं को भी निर्धारित करता है। इस व्रत में न्यूनतम निवृत्ति ली जाती है। यह व्रत प्रहर, मुहूर्त और दिनभर के लिए किया जाता है।
उपासकदशासूत्र में देशावगासिक की परिभाषा करते हुए लिखा हैनिश्चित समय के लिए क्षेत्र की मर्यादा कर उससे बाहर किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करना देशावगासिक-व्रत है।85 यह छठवें व्रत का संक्षेप है।
योगशास्त्र में कहा है-दिगव्रत में किए गए परिमाण को कुछ घण्टों के लिए या दिनों के लिए विशेष मर्यादित करना देशावगासिक -व्रत है।86 जैनेन्द्रसिद्धांतकोश के अनुसार दिग्व्रत में रखी गई मर्यादा में काल के विभाग से प्रतिदिन क्षेत्र का त्याग करना अथवा दिशापरिमाण-व्रत का प्रतिदिन संकोच करना देशावगासिक व्रत है।87
उपर्युक्त परिभाषाओं से फलित होता है कि यह दिशापरिमाण व्रत का संक्षिप्त रूप है। दिग्व्रत में दिशाओं का परिमाण यावज्जीवन किया जाता है, किन्तु देशावगासिक व्रत नियत काल के लिए स्वीकार किया जाता है। दिग्व्रत में केवल क्षेत्र की मर्यादा की जाती है, जबकि देशावगासिक-व्रत में देश, काल एवं उपभोग परिभोग तीनों की मर्यादाएँ की जाती है।
स्थानकवासी परम्परा में इसे संवर करना कहते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की वर्तमान परम्परा में चौविहार उपवासपूर्वक तेरह या पन्द्रह सामायिक एक साथ ग्रहण करने को देशावगासिक-व्रत कहा गया है। आज देशावगासिक-व्रत का यही स्वरूप प्रचलन में है। मूलत: इस व्रत की आराधना के लिए निश्चित अवधि का कोई निर्देश नहीं है। जैसे सामायिक के लिए कम से कम अड़तालीस मिनिट का समय अपेक्षित है, वैसे देशावगासिक व्रत के लिए समय का निर्धारण नहीं है। यह व्रत सामायिक से कम या अधिक अवधि के लिए ग्रहण