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168... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
यह व्रत ग्रहण करते समय श्रावक प्रतिज्ञा करता है-“मैं निश्चित अवधि के लिए दो करण और तीन योगपूर्वक सावध (हिंसादि) कार्यों का त्याग करता हँ।" इस प्रतिज्ञासत्र से स्पष्ट है कि कषाय (हिंसात्मक) भावों से विरत होना ही सामायिक है अत: साधक को सामायिक-व्रत का पालन करते समय समत्वभाव में रहने का प्रयास करना चाहिए।
सामायिकव्रत के अतिचार- सामायिक-व्रत की साधना में सावधानी रखने के बावजूद भी जिन दोषों के लगने की संभावनाएँ रहती हैं, वे निम्न हैं 84
1. मन:दुष्प्रणिधान- मन में अशुभ विचार करना। 2. वचन दुष्प्रणिधान- वचन से अशुभ बोलना। 3. काय दुष्प्रणिधान- शरीर से अशुभ प्रवृत्ति करना, जैसे- बार-बार शरीर ___को हिलाना, सिकोड़ना, पसारना आदि। 4. स्मृत्यकरण- सामायिक में एकाग्रचित्त न रहना अथवा सामायिक की
मर्यादा को विस्मृत करना। 5. अनवस्थिता- सामायिक को निश्चित विधि के अनुसार नहीं करना
अथवा अव्यवस्थित रूप से सामायिक करना। सामायिकव्रत की उपादेयता- सामायिक जैन आचार दर्शन की साधना का केन्द्रबिन्दु है। यह श्रमण जीवन का प्राथमिक धर्म एवं श्रावक जीवन का अति आवश्यक कृत्य माना गया है। सामायिक साधना से एक ओर आत्मजागृति होती है, तो दूसरी ओर समत्वपूर्ण व्यवहार का प्रादुर्भाव होता है। सामायिक का निरन्तर अभ्यास करने से साधकीय जीवन के समग्र पक्षों में समता विकसित हो उठती है। समभाव की प्राप्ति से प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी अनुकूल हो जाती हैं। इसके आचरण से मन, वचन और कर्म त्रियोग की शुद्धि होती है। फलत: व्रती अयोगी अवस्था को उपलब्ध कर लेता है। 10. देशावगासिक व्रत
दिशापरिमाण व्रत में गृहीत परिमाण को किसी नियत समय के लिए पुन: मर्यादित करना देशावगासिक व्रत है। यह व्रत दिशापरिमाण-व्रत का सूक्ष्मरूप है। दिशापरिमाण-व्रत में दसों दिशाओं की मर्यादा की जाती है, उसी मर्यादा में कुछ काल या घंटों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना देशावगासिक व्रत