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166... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
दुश्चिंतन भी एक प्रकार की हिंसा है। वह आत्मगुणों का घात करता है। मूलत: आर्तध्यान और रौद्रध्यान करना अपध्यानचरित है। बुरे विचारों में मन को एकाग्र करना अपध्यान है।
2. प्रमादाचरण- अपने धर्म, दायित्व एवं कर्त्तव्य के प्रति अजागरूक रहना प्रमाद है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने कहा है- कौतूहलवश अश्लील गीत गाना, नाटक देखना, विषय कषायवर्द्धक साहित्य पढ़ना, जुआ खेलना, मद्यपान करना, कलहवर्द्धक विनोद करना, प्राणियों को परस्पर लड़ाना, बिना वजह आलस्यादि करना-ये सब प्रमादाचरण हैं।78 आचार्य समन्तभद्र ने लिखा हैनिरर्थक जमीन खोदना, अग्निप्रज्वलित करना, घृत, तेल, दूध आदि के बर्तन खुले रखना, लकड़ी आदि बिना देखें उपयोग में लेना प्रमादचर्या है।79
3. हिंसाप्रदान- हिंसक उपकरण या साधन जैसे-शस्त्र, आग, विष आदि दूसरों को देना हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है।
4. पापोपदेश- पापकर्म का उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है। आचार्य समन्तभद्र ने अनर्थदण्ड के पाँच प्रकारों का उल्लेख किया है उनमें चार प्रकार उपर्युक्त ही हैं पांचवाँ प्रकार दुःश्रुति नामक है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा हैऐसे उपन्यास, कहानियाँ, नाटक या वार्ताएँ सुनना या पढ़ना, जिनसे कामादि विकार उत्पन्न होते हों, दुःश्रुति अनर्थदण्ड है।80
सुस्पष्ट है कि गृहस्थ साधक को इस व्रत का निर्दोष पालन करने के लिए उक्त दोषों से बचते रहना चाहिए। गृहस्थ-जीवन में ये दोष अनायासरूप से भी लगते रहते हैं, अत: हर पल सचेत रहते हुए इस व्रत का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए।
अनर्थदण्डव्रत के अतिचार- अनर्थदण्डविरमण व्रत के विकास हेतु निम्न पाँच दुष्कृत्यों का परिहार करना आवश्यक हैं81
1. कन्दर्प- काम-वासना को उद्दीप्त करने वाली चेष्टाएँ करना। 2. कौत्कुच्य- अश्लील एवं विकृत चेष्टाएँ करना। 3. मौखर्य- बढ़ा-चढ़ाकर बोलना, व्यर्थ बोलना, बकवास करना आदि।
4. संयुक्ताधिकरण- बिना आवश्यकता के हिंसक-साधनों का संयोग करके रखना जैसे-बन्दूक के साथ कारतूस, धनुष के साथ तीर रखना।