________________
164... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
7. लाक्षावाणिज्य- लाख आदि का व्यापार करना। 8. रसवाणिज्य- मदिरा आदि मादक रसों का व्यापार करना। 9. केशवाणिज्य- केश (बालों) एवं केशवाले प्राणियों को बेचने का व्यापार
करना। 10. विषवाणिज्य- जहरीले पदार्थ एवं हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार करना। 11. यन्त्रपीलनकर्म- घानी, कोल्हू, आदि यंत्रों द्वारा तैलीय पदार्थ को पीसने
का धंधा करना। 12. निलांछनकर्म- प्राणियों के अंग-उपांगों को छेदने, काटने आदि का
व्यवसाय करना। 13. दावाग्नि दानकर्म- जंगल,खेत आदि में आग लगाने का व्यापार करना। 14. सर द्रह तड़ाग शोषणकर्म- सरोवर, तालाब, झील आदि सुखाने का
व्यापार करना। 15. असती जनपोषणकर्म- दुराचारीणी स्त्रियों का पोषण करना, उनके द्वारा
दुराचार करवाकर अर्थोपार्जन करना,चूहे आदि हिंसक प्राणियों का पालन करना आदि।
इन पन्द्रह कर्मादान के व्यवसाय का श्रावक को तीन करण और तीन योगपूर्वक त्याग करना चाहिए। इन व्यवसायों के अतिरिक्त ऐसे अनेक व्यवसाय हैं जिनसे महापाप होता है, वे भी गृहस्थ के लिए निषिद्ध कहे गए हैं। जैसे-कसाईखाना, शिकारखाना, द्यूतक्रीडाकेन्द्र, चौर्यकर्म, मांसविक्रय केन्द्र, मदिरालय, वेश्यालय, आदि। पूर्वोक्त प्रकार के व्यवसाय से मिलते-जुलते अन्य सभी प्रकार के व्यवसाय भी श्रावक को नहीं करने चाहिए, क्योंकि इन व्यापार कर्मों से त्रसजीवों की विशेष हिंसा होती है तथा इनमें से कुछ कर्म समाजविरोधी और निन्दनीय भी हैं। ___ उपभोग-परिभोगव्रत की उपादेयता- इस व्रत का पालन करने से जीवन में सादगी एवं सरलता का गुण उत्पन्न होता है। व्यक्ति की भोगवृत्ति पर अंकुश लगता है तथा संयमित जीवन जीने का अभ्यास होता है। अनावश्यक पदार्थों का उपभोग न करने से शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर की स्वस्थता से बुद्धि, मन एवं चेतना की गतिविधियाँ भी सम्यक् बनी रहती हैं। अनावश्यक पदार्थों का