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________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 163 रत्नकरण्डकश्रावकाचार में इस व्रत सम्बन्धी पाँच अतिचार निम्नोक्त बताए गए हैं- 1. विषयरूपी विष के प्रति आदर रखना 2. बार-बार भोग्य पदार्थों का स्मरण करना 3. पदार्थों के प्रति अत्यधिक लोलुपता रखना 4. भविष्य के भोगों की लालसा रखना 5. भोगों में अत्यधिक तल्लीन होना। 71 ये उपर्युक्त अतिचार भोजन - सम्बन्धी कहे गए हैं। इन अतिचारों में अस्वादवृत्ति पर अधिक बल दिया गया है। स्वादवृत्ति से मर्यादा भंग होती है, अतः श्रावक को उपभोग - परिभोग संबंधी और व्यवसाय संबंधी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए पन्द्रह कर्मादानों एवं उक्त पाँच अतिचारों ऐसे कुल 20 अतिचारों से बचना चाहिए। कर्मादान - जैन आगम ग्रन्थों में व्रतधारी श्रावक के लिए पन्द्रह प्रकार के व्यवसायों का निषेध किया गया है, जो महारम्भ एवं महाहिंसा के कारण हैं। 72 ये निषिद्ध व्यवसाय 'कर्मादान' के नाम से प्रसिद्ध हैं। कर्मादान का अर्थ हैउत्कट (गाढ़)। जिस व्यापार प्रवृत्ति से घने, गहरे, चिकने पापकर्मों का आदान (ग्रहण) होता है, वे कर्मादान कहलाते हैं । उपासकदशासूत्र एवं आवश्यकसूत्र में पन्द्रह कर्मादानों का केवल नाम निर्देश है। 7 3 सागारधर्मामृत 74 एवं योगशास्त्र 75 आदि में इनका स्वरूप भी प्रतिपादित है । पन्द्रह कर्मादानों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है 1. अंगारकर्म- अग्नि सम्बन्धी व्यापार करना जैसे - कोयले बनाना, ईंटे बनाना, आदि। 2. वनकर्म- वनस्पति सम्बन्धी व्यापार करना जैसे - वृक्ष काटना, घास काटना और उनको बेचना आदि । 3. शकटकर्म- वाहन सम्बन्धी व्यापार करना जैसे- गाड़ी, मोटर, तांगा, रिक्शा आदि बनाना। 4. भाटकर्म- वाहन एवं पशु आदि किराए पर देने का व्यापार करना। 5. स्फोटककर्म- भूमि फोड़ने का व्यापार करना जैसे-खान खुदवाना, नहरें बनवाना, मकान बनवाना आदि। 6. दन्तवाणिज्य- हाथीदाँत आदि का व्यापार करना । उपासकदशा की टीका में चमड़े, हड्डी संबंधी व्यापार को भी इसमें सम्मिलित किया गया है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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