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________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...157 हिंसा के द्वार खुले रहते हैं। उन द्वारों को गुणव्रत के द्वारा द्रव्य आदि की अपेक्षा से बन्द किया जाता है। इस प्रकार गुणव्रत अणुव्रत के रक्षा-कवच हैं। वे तीन गुणव्रत निम्न प्रकार हैं 1. दिशापरिमाण व्रत 2. उपभोग परिभोगपरिमाण व्रत 3. अनर्थदण्ड विरमण व्रत। 6. दिशापरिमाण व्रत यह श्रावक का प्रथम गुणव्रत है। दस प्रकार की दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चित करना दिग्परिमाण-व्रत है। ___ इस व्रतोच्चारणकाल में गृहस्थ साधक यह प्रतिज्ञा करता है-“मैं चारों दिशाओं में एवं ऊपर-नीचे ऐसे छहों दिशाओं में तथा उपलक्षण से चारों विदिशाओं में (दसों दिशाओं में) निश्चित सीमा से आगे बढ़कर किंचित् मात्र भी स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करूंगा।" शास्त्रों में अनेक प्रकार की दिशाएँ निर्दिष्ट की गई हैं। उनमें पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-ये चार प्रमुख दिशाएँ हैं। इनके मध्यक्रम से आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान-ये चार विदिशाएँ मानी गईं हैं। एक ऊपर की और एक नीचे की इन दो दिशाओं के मिलने से कुल दस दिशाएँ हो जाती है। इन सभी दिशाओं के लिए नियमित परिमाण करके उससे आगे पाप प्रवृत्ति न करना यानी आवागमन- प्रवृत्ति रोक देनादिग्वत है। पाँचवें अणुव्रत में सम्पत्ति आदि की मर्यादा की जाती है, किन्तु दिग्व्रत में उन प्रवृत्तियों का क्षेत्र सीमित किया जाता है। यहाँ ध्यातव्य है कि श्रमण के लिए क्षेत्र की मर्यादा का कोई विधान नहीं है, क्योंकि उनकी कोई भी प्रवृत्ति स्वार्थमूलक या हिंसात्मक नहीं होती है। वे किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाए बिना जन-जन के कल्याणार्थ विहार करते हैं, परन्तु श्रावक की प्रवृत्ति हिंसामूलक होती है अत: उसे मर्यादा करना आवश्यक है। ___ इस व्रत के सम्बन्ध में यह ज्ञात करना भी आवश्यक है कि दिग्व्रत को स्वीकार करने वाला साधक किसी एक स्थान(निवासस्थान आदि) को केन्द्र बनाता है और उस स्थान से प्रत्येक दिशा के लिए मर्यादा स्थिर करता है कि अमुक केन्द्रस्थान से दसों दिशाओं में इतनी दूर तक जाएगा। इस प्रकार
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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