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156... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
इच्छायम द्वारा अहिंसा, सत्य आदि के प्रति उत्कंठा जागृत होती है। अन्तरात्मा में उन्हें अधिकृत करने की तीव्र भावना उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप साधक उन्हें जीवन में क्रियान्वित करने का प्रयास करता है। उससे योग-अवंचक की प्राप्ति होती है, क्रियापक्ष पारमार्थिक बन जाता है और महापाप की निर्जरा का क्रम अनवरत रूप से आरम्भ हो जाता है। साथ ही अहिंसा द्वारा पारस्परिक सहयोग एवं सहकार की भावना उत्पन्न होती है। सत्यवचन से छल, कपट आदि व्यभिचारों का नाश होता है। अचौर्य-व्रत द्वारा समाज के अधिकारों की रक्षा की जाती है। ब्रह्मचर्य द्वारा इन्द्रियों को नियंत्रित किया जाता है और अपरिग्रह से शोषण-वृत्ति पर अंकुश लगाया जाता है, अतएव व्रतधारी गृहस्थ को गृहीत व्रतों का नियमपूर्वक पालन करना चाहिए।
तीन गुणव्रत जो अणुव्रतों के उत्कर्ष में सहयोगी बनते हैं, वे गुणव्रत कहलाते हैं। जिस प्रकार कोठार में रखा हुआ धान्य नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रतों का पालन करने से पाँच अणुव्रतों की सुरक्षा होती है। इन्हें गुणव्रत कहने का दूसरा प्रयोजन यह है कि ये अणुव्रतरूपी मूलगुणों की रक्षा करते हैं। पुरूषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है कि जैसे परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार शीलवत अणव्रतों की रक्षा करते हैं।54 यहाँ शीलव्रत का तात्पर्य गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत से है। दोनों के संयुक्त रूप को शीलव्रत की अभिधा प्रदान की गई है। संख्या की दृष्टि से गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार माने गए हैं। अणुव्रत स्वर्ण के सदृश हैं और गुणव्रत स्वर्ण की चमक-दमक बढ़ाने के लिए पॉलिश के समान हैं। अणुव्रत खुली पुस्तक है और गुणव्रत जिल्द बांधने के सदृश हैं। इस तरह गुणव्रत अणुव्रत की सुरक्षा करने में परकोटे के समान हैं।
उपासकदशासूत्र में गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत को संयुक्त रूप से सात शिक्षाव्रत कहा गया है55 और उपासकदशा की टीका में व्रतपालन में सहयोगी व्रतों को गुणव्रत की संज्ञा दी गई है एवं परमपद प्राप्त करने की कारणभूत क्रिया को शिक्षाव्रत कहा है।56
__ ये अणुव्रतों में शक्ति का संचार करते हैं। गणव्रत द्वारा अणुव्रत में की गई मर्यादा को अधिक संकुचित किया जाता है, जिससे अणुव्रतों का पालन करने में कठिनाइयों का सामना न करना पड़े। अणुव्रतों में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से