________________
150... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... ___ यहाँ उल्लेखनीय है कि इस व्रत की प्रतिज्ञा में स्वपत्नी या स्वपति के अतिरिक्त अन्य मानव और पशु जगत् के प्रति मैथुन त्याग में दो करण तीन योग शब्द का निर्देश नहीं हुआ है, मात्र एक करण और एक योग(काया) पूर्वक स्वपत्नी के अतिरिक्त शेष मैथुन का त्याग किया गया है, जबकि इसके पूर्व अहिंसा आदि व्रतों की प्रतिज्ञा में दो करण और तीन योग का स्पष्ट उल्लेख है। ___ डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में इसका कारण यह माना जा सकता है कि गृहस्थ जीवन में सन्तान आदि का विवाह करना आवश्यक होता है। इसी प्रकार पशु पालन करने वाले गृहस्थ के लिए उनका भी परस्पर सम्बन्ध कराना आवश्यक हो जाता है अत: इसमें दो करण तीन योग न कहकर श्रावक को अपनी परिस्थिति एवं मन स्थिति के आधार पर स्वतंत्रता दी गई है, यद्यपि देवदेवी के सम्बन्ध में दो करण और तीन योग का निर्देश है।
उपासकदशासूत्र में इस व्रत का प्रतिज्ञासूत्र इस प्रकार है-आनन्द श्रावक कहता है- 'मैं स्वपत्नीसंतोषव्रत ग्रहण करता हूँ, शिवानन्दा नामक अपनी पत्नी के अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।'38 आवश्यकसूत्र में भी स्वपत्नी में संतोष रखकर अन्य सभी से मैथुन प्रवृत्तियों का त्याग बताया गया है। वहाँ मूलपाठ में योग और करण का उल्लेख नहीं है।39
ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार- साधक को इस व्रत की सुरक्षा के लिए निम्न पाँच दोषों से बचना चाहिए
1. इत्वरिकापरिगृहीतागमन-जैनाचार्यों ने इत्वरिका शब्द के दो अर्थ किए हैं-1. अल्पकाल और 2. अल्पवयस्क। इसका स्पष्टार्थ यह है कि कुछ समय के लिए पैसे देकर या किसी तरह से अपने पास रही हुई अल्पवयवाली स्त्री के साथ गमन करना।
2. अपरिगृहीतागमन- अपरिगृहीता का अर्थ है- किसी के द्वारा ग्रहण न की गई कन्या या वैश्य आदि के साथ संसर्ग करना। इसका एक अर्थ यह भी है कि जिस कन्या की सगाई हो चुकी है, किन्तु विधिवत् विवाह नहीं हुआ है, उसके साथ गमन करना।
3. अनंगक्रीड़ा- मैथुन के स्वाभाविक अंगों से काम-वासना की पूर्ति न करके अप्राकृतिक अंगों, जैसे-हाथ, मुख, गुदादि द्वारा कामवासना की पूर्ति करना अनंगक्रीड़ा है, अथवा कामक्रीड़ा को उद्दीप्त करने वाली, जैसे-चुम्बन,