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138... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
पाँच अणुव्रत अणुव्रत का अर्थ है अल्प या लघु व्रत। जैन श्रमण हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कार्यों का पूर्ण रूप से परित्याग करता है अत: उसके व्रत महाव्रत कहलाते हैं, किन्तु श्रावक हिंसादि पाप कार्यों का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता है, वह उसका सीमित या आंशिक त्याग ही करता है अत: उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं।
यद्यपि अणु का शब्दिक अर्थ 'छोटा' भी किया जा सकता है, परन्तु वास्तव में व्रत छोटा या बड़ा नहीं होता है। व्रत को अखण्ड ग्रहण नहीं कर पाने के कारण वह अपूर्ण(अणु) होता है। इस अपूर्ण से पूर्णता की सीमा को प्राप्त करना महाव्रत है। भगवती आराधना में प्राणवध, मृषावाद, चोरी, परदारागमन एवं परिग्रह के स्थूलत्याग को अणुव्रत कहा है। रत्नकरण्डकश्रावकाचार में हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-इन पाँच स्थूल पापों के त्याग को अणुव्रत कहा है। आचार्य उमास्वाति आदि अनेक आचार्यों ने हिंसा आदि पाँच पापों के एक देशत्याग को अणुव्रत कहा है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने स्थूल प्राणी की हिंसा से विरत होने को अणुव्रत माना है। सागार धर्मामृत के अनुसार श्रावक द्वारा अनुमोदना को छोड़कर शेष छ: भंगों द्वारा स्थूल हिंसादि से निवृत्त होना अणुव्रत है। योगशास्त्र में दो करण तीन योग आदि से स्थूल हिंसा आदि दोषों के त्याग को अणुव्रत कहा है। यहाँ दो करण से तात्पर्य-न स्वयं करना, न करवाना और तीन योग का तात्पर्य-मन, वचन, काया से है। सुस्पष्ट है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का देश(अंश) रूप से त्याग करना अथवा किसी भी पाप का दो करण-तीन योग से त्याग करना अणुव्रत है।
जैनधर्म के ये व्रत सार्वभौमिक और सार्वकालिक हैं। अन्य नियमों के लिए इन व्रतों को गौण नहीं किया जा सकता है जैसे-हिंसा हर परिस्थिति में पाप ही है और अहिंसा सदा धर्म ही है। झूठ हर स्थिति में गलत ही है और सत्य सदैव उत्तम ही है।
बौद्धदर्शन में आचारधर्म का नाम 'शील' है, योगदर्शन में 'यम' है एवं जैनदर्शन में 'व्रत' है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच व्रत जैनाचार के मूल हैं। इन व्रतों का पालन करना मुनि और गृहस्थ-दोनों के