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बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 137
3. आचार्य उमास्वाति, आचार्य समन्तभद्र और आचार्य हरिभद्र ने श्रावकाचार का विवेचन बारहव्रतों के आधार पर किया है। इन आचार्यों ने बारहव्रत के साथ सल्लेखना व्रत को भी जोड़ा है।
4. धर्मबिन्दु में सामान्यधर्म और विशेषधर्म - ऐसे दो प्रकारों के द्वारा भी श्रावक के आचार धर्म का प्रतिपादन किया गया है। 2
5. आचार्य जिनसेन, आचार्य सोमदेव और पं. आशाधर ने श्रावक को पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक - इन तीन श्रेणियों में विभाजित कर उनकी चर्चा की है।
6. चारित्रासार में श्रावक के चार भेद किए गए हैं- पाक्षिक, चर्या, नैष्ठिक और साधक ।
उपर्युक्त विवेचन से प्रतीत होता है कि देश - कालगत स्थितियों के अनुसार धर्म आराधना की पद्धतियों में परिवर्तन होता रहा है। एक समय था, जब जैन गृहस्थ के लिए ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करना अनिवार्य माना जाता था। फिर कालक्रम में बारहव्रत ग्रहण करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। तदनन्तर श्रावक के अलग-अलग प्रकार कर दिए गए। इस प्रकार गृहस्थ की आचार विधि में अनुक्रमशः परिवर्तन हुए, परन्तु यह स्मरण रहे कि प्रतिपादन के प्रकारों में बदलाव होने के बावजूद भी मूल रूप में विशेष अन्तर नहीं आया है। आज सभी प्रकार के श्रावक-धर्म प्रचलित हैं। इतना अन्तर अवश्य हो सकता है कि ग्यारह प्रतिमारूप उत्कृष्ट धर्म को अंगीकार करने वाले गृहस्थ अत्यल्प रह गए हों, बारहव्रत स्वीकार करने वाले साधक उससे अधिक हों तथा नैष्ठिक आदि प्रकारों की कोटि में गिने जाने वाले श्रावक सर्वाधिक हों।
जैन साहित्य में श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन विस्तार के साथ प्राप्त होता है और बारहव्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के लिए ही 'श्रावक' शब्द का संबोधन यथार्थ माना गया है। इन बारहव्रतों में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का समावेश होता है।
जैन आचार ग्रन्थों में बारह व्रतों का स्वरूप
श्रावक-साधना का मूल उत्स व्रतों पर निर्भर है। इनके अभाव में श्रावकसाधना अर्थहीन है। इसीलिए जैन - वाङ्मय में श्रावक के आचार-धर्म को प्राथमिकता दी गई है। श्रावक का यह आचार-धर्म द्वादश व्रतों के रूप में निरूपित है। इन व्रतों में सर्वप्रथम अणुव्रत आते हैं, वे निम्न हैं