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________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ... 139 लिए आवश्यक माना गया है, भले ही मुनि द्वारा ये व्रत पूर्ण रूप से परिपालन किए जाते हों और गृहस्थ द्वारा आंशिक रूप में स्वीकार किए जाते हों । प्रसंगोपात्त व्रतों का स्वरूप समझने से पहले यह समझ लेना आवश्यक है कि व्रतभंग की संभावनाएँ कब, किन परिस्थितियों में बनती है ? जैन दर्शन में उन संभावित दोषों को अतिचार कहा गया है। जैन आगम स्थानांगसूत्र में व्रत के अतिक्रमण की चार कोटियाँ बताई गईं हैं 9 1. अतिक्रम- जानबूझकर या अनजान में व्रत खण्डित करने का विचार करना अतिक्रम है। 2. व्यतिक्रम- व्रत खण्डित करने के लिए प्रवृत्ति करना व्यतिक्रम है। 3. अतिचार- गृहीत व्रत का आंशिक रूप से खण्डन करना अतिचार है। 4. अनाचार- गृहीत व्रत को पूर्णतः खण्डित कर देना अनाचार है। व्रती श्रावक को अतिक्रम आदि चारों दोषों से अपने व्रतों की रक्षा करनी चाहिए। 1. अहिंसा अणुव्रत इसका अपर नाम स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत है। उपासक दशासूत्र 10 और आवश्यकसूत्र11 आदि में प्रथम अणुव्रत का नाम स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत रखा गया है। किसी भी त्रस जीव की संकल्पपूर्वक हिंसा करने का त्याग करना स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रत है। हिंसा का स्वरूप- आचारांगसूत्र में प्रमाद एवं काम भोगों के प्रति आसक्त रहने को हिंसा कहा है। 12 उपासकदशा और आवश्यकसूत्र में प्राणातिपात को हिंसा कहा हैं। 13 प्रश्नव्याकरण के अनुसार किसी भी जीव को प्रमाद एवं कषायवश मन, वचन, काया से बाधा पहुंचाना हिंसा है। 14 तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाद-योग से प्राणों का व्यपरोपण करने को हिंसा कहा है। 15 रत्नकरण्डकश्रावकाचार में स्थूल- प्राणघात को हिंसा कहा है। 16 पुरूषार्थसिद्धयुपाय में कषाय के वशीभूत होकर द्रव्य एवं भाव रूप प्राणों के घात को हिंसा माना है । 17 अतः सार रूप में यह कहा जा सकता है कि किसी के प्रति राग या कषायजन्य भावों का उत्पन्न होना हिंसा है, क्योंकि इन्हीं भावों के वशीभूत
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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