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126... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
है। इसमें श्रद्धा के विभिन्न प्रकार हैं। यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है। गीता में स्वयं भगवान् के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा, वह बन्धनों से छूटकर अन्त में मुझे ही प्राप्त होगा। इस प्रकार भक्त कल्याण की जिम्मेदारी स्वयं भगवान् ही वहन करते हैं, जबकि जैन और बौद्ध दर्शनों में ऐसे आश्वासनों का अभाव है। यद्यपि वैदिक अभिप्राय से व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है। व्यक्तित्व का निर्माण जीवन दृष्टि के आधार पर होता है। यहाँ सम्यक्त्वव्रत के सम्बन्ध में यही चर्चा उपलब्ध होती है।
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यदि बौद्ध-परम्परा के अभिप्राय से कहा जाए, तो उनमें यह प्रक्रिया त्रिशरण-ग्रहण कही जाती है। डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार इसमें व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की शरण को अंगीकार करता है ।
उपसंहार
यदि सम्यक्त्व व्रतारोपण विधि का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें तो यह कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व एक आध्यात्मिक स्थिति है। आत्मा का समभाव या स्वस्वरूप में निमग्न रहना ही सम्यक्त्व का लक्षण है। प्राचीन आगमों में सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का प्रयोग आत्मा के ज्ञाता-द्रष्टाभाव या साक्षीभाव की स्थिति में रहने के अर्थ में हुआ है। इस आधार पर यदि हम कहें तो सम्यक्त्वव्रत का आरोपण नहीं होता, उसका तो अभिव्यक्तिकरण या प्रगटीकरण होता है। वह बाहर से आरोपित नहीं किया जाता, अपितु आत्मा के स्वस्वरूप के विकास का ही परिणाम है। किन्तु जब सम्यग्दर्शन शब्द अपने श्रद्धापरक अर्थ में रूढ़ हुआ तब फिर चाहे तत्त्वश्रद्धा हो या देवगुरू-धर्म के प्रति श्रद्धा हो, उसके आरोपण की विधि अस्तित्व में आई और सुदेव, सुगुरू, सुधर्म पर व्यक्ति की श्रद्धा को आरोपित करने का प्रयत्न किया गया।
विश्व की प्रत्येक साधना पद्धति अपने श्रद्धालु वर्ग से ही पहचानी जाती है और इसलिए हर साधना पद्धति अपने आराध्य के प्रति निष्ठा को मजबूत बनाने का प्रयत्न करती है। किसी आराध्य विशेष के प्रति अपनी निष्ठा या श्रद्धा की अभिव्यक्ति किसी न किसी रूप में विश्व के सभी धर्मो में पायी जाती है। उस निष्ठा का प्रस्तुतीकरण ही जैन धर्म में सम्यक्त्व