________________
सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...127 आरोपण के रूप में जाना जाता है इसे श्रद्धानग्रहण भी कहा गया है।
जिस प्रकार बौद्धधर्म में धर्मसंघ और बुद्ध के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति को अर्थात उनकी शरण स्वीकार करने को धर्मसंघ में प्रविष्टि का आधार माना गया उसी प्रकार जैन धर्म में सदेव-सगरू-सुधर्म के प्रति अथवा अरिहंतदेव, निर्ग्रन्थ गुरू और अहिंसामय धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त करना ही सम्यक्त्वारोपण के रूप में या सम्यक्त्व ग्रहण के रूप में स्वीकृत किया गया है।
किसी भी धर्म के दो पक्ष होते हैं। एक बाह्य और दूसरा आन्तरिक। वैसे तो जैन धर्म में सम्यकत्व प्राप्ति का आधार तीव्रतम क्रोध, मान, माया एवं लोभमय प्रवृत्तियों की समाप्ति एवं मिथ्यात्व दृष्टिकोण से विरक्ति होने को माना गया है, किन्तु यह व्यक्ति की आन्तरिक स्थिति है। बाह्य अभिव्यक्ति के लिए सम्यक्त्वव्रत का आरोपण करना आवश्यक रूप में स्वीकारा गया है। जैन धर्म के आचार प्रधान होने के कारण कुछ विशिष्ट नियमों का पालन करने और अरिहंत परमात्मा में अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करने के रूप में सम्यक्त्व आरोपण के कुछ विधि-विधान निर्मित हुए। इन विधि-विधानों में प्रथम तो सप्त दुर्व्यसनों के त्याग एवं अष्ट मूलगुणों की स्वीकृति के साथ जैन धर्म में अपनी निष्ठा की शाब्दिक अभिव्यक्ति को ही सम्यक्त्व आरोपण विधि के रूप में स्वीकार किया गया था किन्त कालान्तर में विविध सम्प्रदायों में तत्सम्बन्धी विधि-विधान में आंशिक परिवर्तन भी हुए।
प्रस्तुत विवेचन में हमने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि सम्यक्त्वव्रतारोपण में उस प्रक्रिया को लेकर जो विविधताएँ आयी, वे देशकालगत परिस्थितियों एवं सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव के कारण आयीं, यद्यपि मूल लक्ष्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। मूल लक्ष्य तो यही रहा कि व्यक्ति की निष्ठा सद्धर्म के प्रति अविचल रहें।
त्रिशरण-ग्रहण की प्रक्रिया जैन परम्परा के त्रिनिश्चय की प्रक्रिया से थोड़ी भिन्न है। उसमें संघ के स्थान पर गुरू का स्थान है। दूसरा, उसमें समर्पण नहीं, वरन् स्वीकृति है। जैन दर्शन में अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं
धर्म की शरण ग्रहण करने की परम्परा तो है, लेकिन साधना के क्षेत्र में प्रविष्टि के लिए जो आवश्यक है, वह अभिस्वीकृति है। वर्तमान युग में