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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...121 स्मरणपूर्वक अभिमन्त्रण की क्रिया की जाती है, वह मन्त्र भी सिद्ध होने से व्रतगाही को शीघता से सिद्धि दिलाने वाला होता है। __ वास-अक्षत का आरोपण किस ध्येय से? - सम्यक्त्व व्रत ग्रहण करते समय व्रतग्राही समवसरण की तीन प्रदक्षिणा देता है। उस समय गुरू भगवन्त एवं साधु-साध्वीवर्ग वासचूर्ण का और श्रावक-श्राविकावर्ग अक्षतों का उसके मस्तक पर क्षेपण करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं। प्रथम तो अक्षतों को उछालना एक प्रकार से वर्धापन की क्रिया है। यह प्रयोग व्यावहारिक-जगत् में भी देखते हैं। यहाँ बधाने से तात्पर्य है कि उस व्यक्ति ने व्रत ग्रहण करके श्रेष्ठ कार्य किया है, क्योंकि व्रतग्रहण करने वाला बहुत सी पापक्रियाओं से विरत हो जाता है, अनावश्यक हिंसाओं का त्याग कर देता है और अनन्त जीवों को अभय दान देता है, इत्यादि कई प्रकार के गुणों का संग्रह करने वाला होने से वह महान् व्यक्तियों की कोटि में आ जाता है।
दूसरा तथ्य यह है कि सकल संघ और जिनबिम्ब की साक्षी में वासचूर्ण एवं अक्षत डालने का यह प्रयोग व्रतग्राही के मन को दृढ़ बनाता है। प्रारम्भ में व्रतग्रहण का अधिकारी कौन हो सकता है ? उस चर्चा में व्रतग्राही के जो गुण बताए गए हैं, उन गुणों से युक्त गृहस्थ के लिए प्रतिज्ञा को खण्डित कर देना बिना पापोदय के संभव नहीं है, फिर संघ के समक्ष ग्रहण की गई प्रतिज्ञा को भंग करना और भी सहज नहीं होता है।
तीसरे तथ्य के अनुसार जिस प्रकार छिलका रहित अक्षत पुन: नहीं उग सकता उसका पुनर्जन्म समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार व्रतनिष्ठा के माध्यम से व्रतग्राही जन्म-मरणरूप परम्परा का विच्छेद कर अक्षतपद (मोक्षपद) को समुपलब्ध करें, इन भावों से भी अक्षतों का निक्षेपण किया जाता है। __इस सम्बन्ध में जैनसंघ के लोगों में यह अवधारणा भी है कि गुरूजनों द्वारा मस्तक पर वासचूर्ण डलवाया जाए, तो सद्बुद्धि का विकास होता है, सभी कार्य निर्विघ्नतया सम्पन्न होते हैं, इच्छित कार्य शीघ्रमेव फलते हैं, मानसिक शांति में वृद्धि होती है तथा चित्त विकल्पों से रहित होता है।
श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक की वर्तमान परम्परा में वास प्रदान करने का प्रचलन दिनानुदिन बढ़ता जा रहा है। सामान्य कार्य की सफलता के लिए भी वास ग्रहण करना साधारण-सी बात हो गई है, जबकि सत्यार्थ यह है