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________________ 118... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... की साधना को निश्चित ऊँचाईयों तक पहुँचाता है। सम्यक्त्वसामायिक-श्रुतसामायिक का युगपत् ग्रहण क्यों?सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक-दोनों एक साथ ग्रहण करने का प्रयोजन यह है कि द्रव्यसम्यक्त्व की प्राप्ति तो संभवतया द्रव्य-क्रियाओं के आधार पर हो सकती है, किन्तु भावसम्यक्त्व की उत्पत्ति विशुद्धज्ञान (श्रुतज्ञान) के आधार पर ही होती है और भावसम्यक्त्व की प्राप्ति हुए बिना भावचारित्र की उपलब्धि नहीं हो सकती तथा भावचारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। इस प्रकार साध्य(मोक्ष) की उपलब्धि के लिए साधन (सम्यकदर्शन-सम्यकज्ञान) का युगपत् होना अनिवार्य है अत: दर्शन एवं ज्ञान का आरोपण एकसाथ किया जाता है। व्रत ग्रहण के प्रारम्भ में ईर्यापथिक प्रतिक्रमण क्यों? - जैन परम्परा में ईर्यापथ प्रतिक्रमण धार्मिक क्रियाकलापों का एक आवश्यक तत्त्व माना गया है। आध्यात्मिक अनुष्ठान हो या धार्मिक-क्रियाकलाप, व्रतग्रहण का प्रसंग हो या उपधानतप का अवसर, अधिकांश धार्मिक क्रियाएँ ईर्यापथ प्रतिक्रमण द्वारा प्रारंभ होती हैं। इस क्रिया का उद्देश्य एक ओर साधक को हिंसाजनक प्रवृत्तियों से दूर रखना है, तो दूसरी ओर ज्ञात-अज्ञात में हुई हिंसात्मक प्रवृत्तियों द्वारा लगे हुए पाप कर्मों से आत्मा को ऊँचा उठाना है। स्वरूपतया ईर्यापथ प्रतिक्रमण द्वारा गमनागमन में लगे हुए दोषों, अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जीवों को किसी भी प्रकार से कष्ट पहुँचाया हो, उन पाप क्रियाओं से पश्चाताप पूर्वक विरत हुआ जाता है। प्राय: दोषों की संभावनाएँ शारीरिक हलन-चलन और मानसिक- दुर्विचार पर ही अवलम्बित होती हैं। इस क्रिया के माध्यम से पापबद्ध आत्मा शुद्ध बन जाती है, अत: आत्म परिणति को विशुद्ध बनाने एवं पापकर्मों से मुक्त बनने के लिए ईर्यापथिक प्रतिक्रमण किया जाता है। व्रतग्राही को बायीं ओर क्यों बिठाएँ?- जैन परम्परा में व्रतादि-ग्रहण के समय गुरू व्रतग्राही शिष्य को अपने बायीं ओर बिठाकर ही सर्व क्रियाएँ सम्पन्न करवाते हैं। गुरू के बायीं तरफ बैठना लघुत्वभाव का सूचक है क्योंकि दाहिनी दिशा का स्थान अपेक्षाकृत ऊँचा होता है। इस प्रयोग को व्यावहारिक तौर पर समझने का प्रयास किया जाए तो यह बात और अधिक
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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