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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन
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आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पापाचरण नहीं करता है‘सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं' 165 आचारांगनिर्युक्ति में लिखा है-सम्यग्दर्शन के बिना कर्मों का क्षय नहीं होता, इसलिए कर्मरूपी सेना पर विजय प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन आवश्यक है। 66 सम्यग दृष्टि द्वारा किया हुआ तप, जप, ज्ञान और चारित्र ही सफल होते हैं। जैन विचारणा के अनुसार सत् अथवा असत् आचरण करना व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर है। सम्यग्दृष्टि का आचरण सदैव सत् होता है। इसी आधार पर सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है - जो पुरूष वीर है, लेकिन उसका दृष्टिकोण मिथ्या या असम्यक है तो उसके द्वारा किया गया तप, अध्ययन और नियम आदि समस्त पुरूषार्थ अशुद्ध होते हैं और वे अशुभ फल देने वाले होते हैं। 67
आशय है कि जहाँ सम्यग्दृष्टि व्यक्ति का सम्पूर्ण पुरूषार्थ मुक्ति का कारण होता है, वहीं मिथ्यादृष्टि का पुरूषार्थ बन्धन का कारण होता है।
आचार्य समन्तभद्र सम्यग्दर्शन की महानता बतलाते हुए कहते हैंसम्यग्दर्शनसहित गृहस्थ, सम्यग्दर्शनरहित साधु से श्रेष्ठ है और मोक्षमार्ग में स्थित है। 68 आचार्य कुन्दकुन्द ने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में सम्यग्दर्शनरहित जीव को चलता हुआ मुर्दा कहा है। इससे सम्यग्दर्शन का अलौकिक माहात्म्य स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। वे लिखते हैं कि लोक में जीवरहित शरीर को शव कहते हैं, मृतक या मुर्दा कहते हैं वैसे ही सम्यग्दर्शनरहित पुरूष चलता हुआ मृतक है। मृतक तो लोक में ही अपूज्य होता है, किन्तु दर्शनरहित मुर्दा लोकोत्तर में भी अपूज्य है। 69
इसी प्रकार अनेक उत्कृष्ट उपमाओं द्वारा सम्यग्दर्शन की महत्ता बताते हुए वे लिखते हैं 70 कि जैसे तारिकाओं के में समूह चन्द्रमा, पशुओं के समूह में मृगराज श्रेष्ठ है, वैसे ही मुनि और श्रावक - इन दो प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व श्रेष्ठ है। इसी प्रकार जैसे निर्मल आकाश में ताराओं के समूह में चन्द्रबिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किए हुए तप तथा व्रतों से निर्मल जिनलिंग है, वह शोभा पाता है। 7 1 स्वामी कार्तिकेय के अनुसार सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है, योगों में उत्तम योग है, क्योंकि सम्यक्त्व से मोक्ष की सिद्धि होती है, सब सिद्धियों को करने वाला यह सम्यक्त्व ही है। 72 शिवार्य कहते हैं- जिस
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