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92... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
ग्रन्थ का एक सम्पूर्ण अध्याय ही सम्यग्दर्शन की महिमा और उसके विवेचन से उत्कीर्ण मिलता है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टपाहुड के अन्तर्गत 'दर्शनपाहुड' नाम का स्वतंत्र अध्याय रचकर सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल बताया है०० और कहा है-जिसके दर्शन नहीं है, उसके धर्म भी नहीं है, क्योंकि मूलरहित वृक्ष के स्कन्ध, शाखा, पुष्प, फलादि कहाँ से होंगे? इसलिए यह उपदेश है कि जिसके धर्म नहीं, उसे धर्म की प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्म के निमित्त उसकी वंदनता किसलिए करें ?61 इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना निर्वाण की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है क्योंकि कहा गया है
जो पुरूष दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं तथा जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनको निर्वाण नहीं होता क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं, परन्तु जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते | 62
इस प्रकार स्पष्ट और कठोर शब्दों में सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल और मोक्षमार्ग में सर्वोपरि बताया है। इससे निश्चित है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक ही चारित्र सम्यक्चारित्र कहलाता है और वह निश्चय से मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
सम्यग्दर्शन का माहात्म्य
मानव जीवन के व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक- दोनों जगत् में सम्यग्दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में भौतिकजीवन का और सम्यक् श्रद्धान के अभाव में आध्यात्मिक जीवन का विकास होना असंभव है।
नन्दिसूत्र में सम्यग्दर्शन का महत्त्व बतलाते हुए उसे संघरूपी सुमेरू पर्वत की अत्यन्त सुदृढ़ और गहन भूपीठिका कहा गया है, जिस पर ज्ञान और चारित्ररूपी उत्तम धर्म की मेखला ( पर्वतमाला ) स्थिर है। 63 जैन - आचार में सम्यग्दर्शन को मुक्ति का अधिकार-पत्र कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में निर्देश है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं होती, चारित्र के बिना मोक्ष नहीं होता है अतः साधना के क्षेत्र में श्रद्धा की अपरिहार्य आवश्यकता है। 64