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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन... 91
पूर्वोल्लिखित नि:शंक आदि आठ गुणों से रहित स्वरूप को यहाँ शंका, कांक्षा आदि आठ दोषों के रूप में जानना चाहिए।
निष्पत्ति - दिगम्बर परम्परा के अभिमतानुसार सम्यग्दृष्टि जीव में उक्त पच्चीस दोष नहीं होते हैं । उपर्युक्त दोषों में से एक दोष भी जिसे होता है उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता, क्योंकि ये दोष सम्यग्दर्शन का पूर्ण घात करते हैं।
यह वर्णन दिगम्बर आम्नाय के मूलाचार, ज्ञानार्णव, बृहद्द्रव्यसंग्रह, रत्नकरण्डकश्रावकाचार, अष्टपाहुड - मोक्षपाहुड आदि ग्रन्थों में विस्तार के साथ प्राप्त होता है।
सम्यग्दर्शन की आवश्यकता क्यों ?
लोकव्यवहार में यह बात प्रसिद्ध है कि पाप से दुःख होता है और धर्म से सुख, इसलिए जो भव्य प्राणी सुख की अभिलाषा करता है, उसे पापकर्म छोड़कर धर्म मार्ग का आचरण करना चाहिए।
स्वरूपतः इस आत्मा की संसार और मोक्ष- ये दो अवस्थाएँ हैं। ये दोनों ही परस्पर विरूद्ध हैं। बन्धन का नाम संसार है और मुक्त होने का नाम मोक्ष। सम्पूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक- उच्छेद अर्थात् कर्मों से पूर्णतया छूटना मोक्ष है। यह मोक्ष मोक्षमार्गपूर्वक होता है। आचार्य उमास्वाति मोक्षमार्ग का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं 9
'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्गः' - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग बनते हैं। मोक्षमार्ग में भी सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता है। सम्यग्दर्शन के बिना मोक्षमार्ग और मोक्ष भी सम्भव नहीं है, अतः मोक्ष सुखाभिलाषियों को सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरूषार्थ करना चाहिए। सम्यग्दर्शन वह महान् उपलब्धि है, जिसके प्रकट होने पर अतीन्द्रिय सुख में वृद्धि और पूर्णता की प्राप्ति होती है।
सम्यग्दर्शन की आवश्यकता इस बात से भी स्पष्ट है कि सम्पूर्ण जिनागम में ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं होगा, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सम्यग्दर्शन की चर्चा न हुई हो । अधिकांश जिनागम का प्रारम्भ और कहीं तो