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________________ सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ... 81 विषयक संक्षिप्त वर्णन निम्नानुसार है 51 - चार श्रद्धान- जिसके द्वारा सम्यक्त्व का बोध हो, वह श्रद्धान कहलाता है। इसके चार प्रकार हैं 1. परमार्थसंस्तव- जीवाजीवादि तत्त्वों का बहुमानपूर्वक अभ्यास करना। 2. सुदृष्टपरमार्थसेवन-जीवाजीवादि पदार्थों के सम्यक् ज्ञाता आचार्या आदि की यथाशक्ति उपासना-वैयावृत्य करना। 3. व्यापन्नदर्शन वर्जन- कुगुरू का त्याग करना। 4. कुदर्शन वर्जन- मिथ्यादृष्टि कुगुरू के संग का त्याग करना । सम्यक्त्व की निर्मलता के लिए ये चारों आवश्यक हैं। तीन लिंग- जिसके द्वारा किसी भी जीव के सम्यक्त्वी होने का बोध किया जाए, वह लिंग कहलाता है। सम्यक्त्व के तीन लिंग प्रज्ञप्त हैं1. श्रुतधर्म में राग- शास्त्र श्रवण में अनुरक्त रहना । 2. चारित्र धर्म में राग - चारित्र धर्म पालन करने की इच्छा रखना। 3. देव-‍ - गुरू का वैयावृत्य- देव और गुरू में पूज्यभाव रखना और उनका आदर-सत्काररूप वैयावच्च का नियम करना । दस विनय- देव-गुरू-धर्म की अन्तरंग हृदय से भक्ति करना, विनय कहलाता है। इसके दस भेद हैं 1. अरिहंत - तीर्थंकर परमात्मा का विनय करना । 2. सिद्ध- अष्टकर्म से मुक्त परमात्मा का विनय करना । 3. चैत्य - जिन प्रतिमा का विनय करना । 4. श्रुत- आचारांग आदि आगम-ग्रन्थों का विनय करना । 5. धर्म- क्षमा आदि दस धर्म का विनय करना । 6. साधु- श्रमण समूह का विनय करना। 7. आचार्य- गच्छनायक का विनय करना । 8. उपाध्याय- ज्ञानदाता पदस्थ मुनि का विनय करना । 9. प्रवचन- चतुर्विध संघ का विनय करना । 10. दर्शन- सम्यक्त्व धर्म का विनय करना। यहाँ विनय से तात्पर्य पूज्यजनों के सम्मुख गमन, आसनदान, सेवा, नमस्कार, भक्ति, पूजा आदि करना है। इससे सम्यक्त्व गुण पुष्ट होता है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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