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80... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
इसके दो अर्थ घटित होते हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करना उपबृंहण है तथा दूसरे अर्थ के अनुसार जो दर्शन आदि गुणों से संपन्न हैं, उन व्यक्तियों के गुणों का संवर्धन या संकीर्त्तन करना, उनके शुद्ध आचरण में सहयोगी बनना, उनकी प्रशंसा करना, उपबृंहण कहलाता है। 43
6. स्थिरीकरण - धर्ममार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को पुनः धर्म में स्थिर करना स्थिरीकरण है। किसी को धर्ममार्ग में संलग्न करना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह कार्य सम्यक्त्वव्रत सम्पन्न व्यक्ति ही कर सकता है।
7. वात्सल्य- समान धर्म का आचरण करने वाले साधर्मिक बन्धुओं के प्रति स्नेह-भाव रखना वात्सल्य है। यह वात्सल्य गुण जिन शासन के प्रति सच्चा अनुराग होने पर ही प्रकट होता है।
8. प्रभावना - जिनशासन एवं जैनधर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए प्रयत्नशील रहना प्रभावना है। सदाचरण - सद्ज्ञान द्वारा अन्य प्राणियों को धर्म-मार्ग की ओर आकर्षित करना प्रभावना है। 44 प्रभावना आठ प्रकार से होती हैं- 1. प्रवचन 2. धर्मकथा 3. वाद 4. नैमित्तिक 5. तप 6. विद्या 7. व्रतग्रहण और 8. कवित्वशक्ति । इन आठ अंगों के परिपालन द्वारा सम्यक्त्व (सत्यबोध) को और अधिक शक्तिशाली बनाया जाता है।
निष्पत्ति- जो सम्यग्दर्शन निःशंकित आदि अष्ट गुणों से युक्त होता है, उसे उत्कृष्ट रत्नरूप माना गया है। सिद्धांतसार के अनुसार जो व्यक्ति इस अमूल्य रत्न को अपने हृदय में धारण करता है, उसे चक्रवर्ती आदि सर्व प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होती है। 45
जैनागमों में यह वर्णन एकमात्र उत्तराध्ययनसूत्र में पढ़ने को मिलता है। 46 आगमिक व्याख्या - साहित्य में यह चर्चा निशीथभाष्य 17 आदि में प्राप्त होती है। आगमेतर ग्रन्थों में यह वर्णन श्वेताम्बर के श्रावक धर्मविधिप्रकरण,48 प्रतिक्रमणसूत्र आदि में तथा दिगम्बर के अष्टपाहुड 49, पुरूषार्थ सिद्धयुपाय 50 आदि में संप्राप्त होता है।
व्यवहार सम्यक्त्वी के 67 गुणों का स्वरूप एवं प्रयोजन
सम्यक दृष्टि जीव किन गुणों से युक्त होना चाहिए? तथा उसे किन नियमों का परिपालन एवं किन व्यापारों का परित्याग करना चाहिए? इस