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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...45 सकता है। व्रत-ग्रहण काल में सामान्य रूप से उनपचास विकल्पों का सहारा लिया जाता है। ये विकल्प तीन करण और तीन योग से मिलकर बनते हैं। करण
और योग-ये दोनों जैन दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं। जिसके द्वारा कार्य किया जाए, वह करण कहलाता है। कितने ही कार्य स्वयं के द्वारा किए जाते हैं, कितने ही कार्य दूसरों से करवाए जाते हैं और कितनी ही बार दूसरों के द्वारा किए गए कार्यों का अनुमोदन (समर्थन) किया जाता है। इन तीन करणों को क्रमशः कृत, कारित और अनुमोदित कहते हैं। मन, वचन और काया-ये योग के तीन प्रकार हैं। इन तीनों को प्रवृत्ति और कार्य से जोड़ना योग कहलाता है।
त्याग की तरतमता की अपेक्षा से श्रावक व्रत के निम्न आठ विकल्प होते हैं-73
1. दो करण तीन योग से त्याग करने वाला। 2. दो करण दो योग से त्याग करने वाला। 3. दो करण एक योग से त्याग करने वाला। 4. एक करण तीन योग से त्याग करने वाला। 5. एक करण दो योग से त्याग करने वाला। 6. एक करण एक योग से त्याग करने वाला। 7. उत्तरगुणसम्पन्न। 8. अविरतसम्यगद्रष्टि।
गृहस्थ साधक अपनी रूचि और शक्ति के अनुसार व्रतों को ग्रहण कर सकता है। इस अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए ये विकल्प कहे गए हैं।
कुछ श्रावक प्रथम भंग के अनुसार, कुछ द्वितीय भंग के अनुसार और कुछ तृतीय, चतुर्थ, पंचम और षष्ठम भंग के अनुसार अणुव्रतों को ग्रहण करते हैं। इस प्रकार व्रत-ग्रहण करने की अपेक्षा से श्रावकों के छ: भेद होते हैं। इसी तरह छ: भेद चार व्रत लेने वालों के, छ: भेद तीन व्रत लेने वालों के, छ: भेद दो व्रत लेने वालो के, छ: भेद एक व्रत लेने वालों के, इस प्रकार कुल तीस भेद होते हैं। 31 वाँ भेद उत्तरगुणधारी (विकल्परहित व्रत ग्रहण करने वाले) श्रावक का और 32 वाँ भेद अव्रती श्रावक का है। इस तरह आठ विकल्पों द्वारा व्रत ग्रहण करने वाले श्रावक के 32 भेद होते हैं।
सामान्यत: व्रत ग्रहण की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में 49 भंग बताए गए हैं।