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44... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... है, इसलिए भी व्रत-ग्रहण की एक सुनिश्चित विधि की आवश्यकता महसूस होती है।
__ तीसरा कारण यह है कि चतुर्विध संघ के समक्ष किसी भी प्रकार की ली गई प्रतिज्ञा में स्थायित्व की सम्भावना रहती है, क्योंकि निर्दिष्ट गुणवाला गृहस्थ हो, तो वह लोकलज्जा, निश्छलता आदि गुणों को धारण करता हुआ गृहीत प्रतिज्ञा के प्रति सदैव जागृत एवं सचेत रहता है। किसी भी परिस्थिति में अपनी प्रतिज्ञा को खण्डित नहीं कर सकता। यहाँ तक कि प्रतिज्ञा भंग से होने वाले दुष्परिणामों के बारे में भी रहेगा। ऐसे अनेक कारण हैं जिनसे व्रत अनुष्ठान की अनिवार्यता सिद्ध होती हैं। व्रत-ग्रहण करने के विभिन्न विकल्प ___ जैन धर्म में मुख्य व्रतों को अणुव्रत या महाव्रत कहा है। योगदर्शन में उसे 'पंचयम' कहा गया है और बौद्ध धर्म में उसे 'पंचशील' माना है। इससे ध्वनित होता है जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में व्रत का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।
जैन दर्शन सूक्ष्म चिन्तन प्रधान दर्शन है। वह व्रत ग्रहण के सम्बन्ध में कुछ विकल्प रखता है। उसका यह कहना है कि
मुनिधर्म(पंचमहाव्रत) स्वीकार करने पर किसी प्रकार के विकल्प नहीं रखे जाते हैं। उसमें विकल्प रखने की आवश्यकता ही नहीं रहती है, क्योंकि मुनिधर्म उत्सर्ग-मार्ग है और गृहस्थ धर्म अपवाद-मार्ग है।
गृहस्थ सामाजिक, पारिवारिक एवं भौतिक-जगत् के बीच पलता है, उसे कभी भी किसी प्रकार की बाधा आ सकती है। दूसरा कारण यह है कि उसके जीवन में व्यवहार की प्रधानता रहती है, निश्चय के आदर्श पर चलना उसके लिए मुश्किल है अत: वह किसी भी प्रकार के व्रत को पूर्णतया धारण करने में समर्थ नहीं हो सकता है। एतदर्थ उसके लिए कुछ विकल्प बताए गए हैं, ताकि वह गृहस्थी के बन्धन में रहते हुए भी व्रतों का यथाशक्ति पालन कर सके। इससे फलित होता है कि मुनिधर्म निर्विकल्प है और गृहस्थ-धर्म सविकल्प है। मुनि के व्रत-नियम आदि विकल्प(छूट) रहित हैं और गृहस्थ के व्रत, नियम आदि विकल्पसहित हैं। मुनि जीवन की साधना कठोरता के साथ आगे बढ़ती है और गृहस्थ जीवन की साधना सरलता के साथ आगे बढ़ती है।
सिद्धान्तत: गृहस्थ श्रावक अपने व्रतों का पालन अनेक विकल्पों से कर