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________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...43 सकता है और न ही सम्यक्श्रद्धा कर पाता है। वह हर क्षण संशय के झूले में झूलता रहता है, मिथ्यात्व वश किसी वस्तु का विपरीत स्वरूप पकड़ लेता है जिससे वह यथार्थ निर्णय भी नहीं कर पाता है और यथार्थ निर्णय के अभाव में व्रत का यथार्थ परिपालन नहीं कर सकता है, इसलिए व्रती को मिथ्यात्व शल्य से रहित होना चाहिए। जिस प्रकार शरीर पर चुभे हुए कांटे प्राणान्तक पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, उसी प्रकार शल्यसहित व्रत ग्रहण करने वालों को पूर्वोक्त शल्य जीवन भर पीड़ित करते रहते हैं जिससे आत्मा का विकास नहीं हो पाता। इसलिए आत्मशुद्धि के इस मार्ग पर आरूढ़ हाने वाले साधक को निःशल्य होना चाहिए। ऐसा व्यक्ति ही व्रत-पालन के योग्य कहा गया है, क्योंकि व्रत आदि का निर्दोष पालन सरल-सहज व्यक्ति के लिए ही संभव है। सम्यक्त्व आदि व्रतग्रहण की आवश्यकता क्यों? यह विचारणीय तथ्य है कि जब व्यक्ति सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत, सामायिकव्रत, उपधानतप आदि का प्रतिज्ञापूर्वक एवं संकल्पपूर्वक पालन कर सकता है, तब इन्हें स्वीकार करने हेतु विशिष्ट विधि की क्या आवश्यकता है? तथा व्रत ग्रहण के दिन नन्दीरचना, देववन्दन, उपवास आदि का क्या महत्त्व है? __इसका उचित समाधान यही दिया जा सकता है कि जिस प्रकार चिकित्सक के घर जन्म लेने मात्र से कोई चिकित्सक नहीं बन जाता उसके लिए चिकित्सा की पढ़ाई करना एवं उसकी परीक्षा समुत्तीर्ण करना जरूरी होता है, उसी प्रकार उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई श्रावक नहीं बनता, उसके लिए शक्ति के अनुसार परमात्मा की पूजा करना, सकल संघ के समक्ष संकल्पित नियम को स्वीकार करना, गुरूमुख से पाप आदि कार्य न करने की प्रतिज्ञा आदि करना आवश्यक है। सकल संघ के समक्ष प्रतिज्ञाबद्ध होना-यह जैन श्रावक की कोटि में प्रवेश करने का प्रमाण-पत्र है और श्रावकत्व की दीक्षा स्वीकार करने का परीक्षण है। उपर्युक्त अनुष्ठान सम्पन्न करने से व्रतग्राही गृहीत व्रतादि का निष्ठापूर्वक पालन करता है। व्रतग्रहण की आवश्यकता का दूसरा प्रयोजन यह कहा जा सकता है कि व्रत या तप ऐसे गुण हैं जो जन्मजात प्राप्त नहीं होते हैं। उन्हें अर्जित करना होता
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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