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42... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... प्रदान करें। जैसे-आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों ने अणुव्रत ग्रहण किए तथा धन्ना, शालिभद्र, मेघकुमार आदि ने महाव्रत ग्रहण किए। सम्यक्त्वादि-व्रतग्रहण करने का अधिकारी कौन
जैन आगमों में यह स्पष्ट कहा गया है कि व्रती वही बन सकता है, व्रत ग्रहण का संकल्प वही कर सकता है, जिसने शल्यों का परित्याग किया हो।72
शल्य का अर्थ है- तीक्ष्ण कांटे या तीर।
जैन ग्रन्थों में तीन प्रकार के शल्य कहे गए हैं-1. मायाशल्य 2. निदानशल्य और 3. मिथ्यात्वशल्य।
1. माया शल्य- जिस व्रत का जो महान् उद्देश्य है उसका ख्याल न रखते हुए मात्र लोगों को दिखाने के लिए व्रत ग्रहण करना माया-शल्य है। क्योंकि मायापूर्वक व्रत ग्रहण करने वाला साधक गुप्त रूप से व्रत का भंग कर सकता है, जन-सामान्य के सम्मुख व्रतधारी होने का अभिनय कर सकता है, कदाच किसी के द्वारा प्रतिज्ञा भंग करते हुए उसे देख लिया जाए तो जिन शासन की अवहेलना, लोक निन्दा आदि हो सकती है। इन्हीं कुछ कारणों से मायावी व्यक्ति के लिए व्रत ग्रहण करने का निषेध किया गया है।
2. निदान शल्य- किसी भी व्रत को फलाकांक्षा, लालसा एवं सांसारिककामना की चाहपूर्वक स्वीकार करना निदान शल्य है। जैसे-मैं इतना तप करूंगा, तो मुझे स्वर्ग मिलेगा, मैं किसी को दान दूंगा, तो परभव में धनी बनूंगा, इस तरह प्रतिफल की अपेक्षा से व्रत का स्वीकार करना। यदि कोई साधक निदान(फल प्राप्ति) की भावना पूर्वक व्रत स्वीकार करता है, तो वह एक प्रकार की सौदेबाजी है जबकि बिना किसी कामना के अंगीकार किया गया व्रत क्षणभर में अनन्त कर्मों की निर्जरा कर सकता है, तब महान् फल को तुच्छ वस्तु के लिए समर्पित करना कहाँ की समझदारी है? अत: व्रत का ग्रहण निदानरहित होना चाहिए, वही विशुद्ध आराधना का प्रकार है। ___ 3. मिथ्यादर्शन शल्य- अज्ञानता, नासमझी या मिथ्याधारणा पूर्वक व्रत अंगीकार करना मिथ्यादर्शन शल्य है। व्रती के लिए मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग करना परमावश्यक है, क्योंकि जहाँ तक मिथ्यात्व रहता है, वहाँ तक व्रत का पालन सम्यक प्रकार से नहीं हो सकता। इसी के साथ मिथ्यात्वबुद्धि के रहने पर व्रती प्रतिपल संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के कारण न सम्यग्ज्ञान कर