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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...41 स्वीकृत बन्धन है। आत्मोत्थान की मंगलमय भावना से ग्रहण किया गया बन्धन है। वस्तुतः व्रत इच्छओं का दमन नहीं, शमन है।
यदि आगम-साहित्य का अवलोकन करें, तो व्रत की मल्यवत्ता और अधिक स्पष्ट हो जाती है। इसमें वर्णन आता है कि जो भी ममक्ष साधक तीर्थंकर परमात्मा या आचार्यों के निकट आता था, उसे सर्वप्रथम व्रतों का स्वरूप समझाया जाता था। तत्पश्चात् वह साधक स्वयं व्रत ग्रहण करने के लिए अपनी भावना प्रभु के समक्ष व्यक्त करता था, तब तीर्थंकर परमात्मा कहते 'जहा सुयं देवाणुप्पिया, मा पडिबद्धं करेह' - हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख उत्पन्न हो, वैसा करो। इस आगम वचन से सिद्ध होता है कि साधक की स्वयं की रूचि, इच्छा और शक्ति पर व्रत ग्रहण करना छोड़ दिया जाता था। इससे यह भी फलित होता है कि व्रत लेने-देने की वस्तु नहीं, यह तो स्वेच्छा से स्वयं ग्रहण करने की वस्तु है। इससे यह मानना होगा कि व्रत बन्धन नहीं है, वरन् निश्छल एवं निर्दोष रूप से जीवन जीने की महत्वपूर्ण कला है।
व्रत का उद्देश्य सदा सर्वदा महान होना चाहिए। किसी भी व्रत का पालन भौतिक पदार्थों की प्राप्ति, शारीरिक इच्छाओं की उपलब्धि या किसी प्रकार के चमत्कारों की लालसा से रहित किया जाना चाहिए। व्रतों का पूर्णत: पालन करने के लिए हृदय मे उत्साह होना चाहिए। वही व्रत जीवन में प्रचण्ड शक्ति का संचार करता है, कर्मों की निर्जरा करता है, आत्मशुद्धि के साथ-साथ परमात्म भाव की प्राप्ति और वीतरागता की उपलब्धि करवाता है। अत: व्रतग्राही साधकों को यह ध्यान रखना परम आवश्यक है कि व्रत का स्वीकार भौतिक इच्छा, सांसारिक लिप्सा, स्वार्थवृत्ति एवं प्रलोभन आदि के उद्देश्य को लेकर न हो।
व्रत ग्रहण करने के विषय में यह विवेक भी आवश्यक है कि कोई भी व्रत क्रोध, मान, माया या लोभ के आवेश में आकर ग्रहण नहीं किया जाए, क्योंकि क्रोधादि से आविष्ट होकर ग्रहण किया गया व्रत सुव्रत नहीं होता अपितु वह व्रत का अभिनयमात्र हो सकता है। व्रतप्रदान के सम्बन्ध में भी यह विवेक रखना अनिवार्य है कि साधक की योग्यता और क्षमता को देखकर व्रत प्रदान किया जाए। जैसे-एक व्यक्ति पूर्ण स्वस्थ है, शरीर से हृष्ट-पुष्ट है, तो उसे संथारा ग्रहण करवाना अनुचित है किन्तु अस्वस्थ हो, मृत्युवेला निकट आ चुकी हो, तो संलेखना न करवाना अनुचित है अतएव पात्रता एवं स्थिति को देखकर व्रत