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________________ 40... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक है कि व्रत के पालन और कानून के पालन में बड़ा अन्तर है। कानून के नियम स्वेच्छा से स्वीकृत नहीं होते हैं, किन्तु व्रत स्वेच्छा से स्वीकार किए जाते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि जो वस्तु जबरन लादी जाती है, उस वस्तु (नियम) को भंग करने के लिए मन चाहता है, परन्तु जो नियम स्वेच्छा से स्वीकृत हों, उसे वह व्यक्ति प्राण प्रण से निभाता है। व्रत एक प्रकार का आत्मसंयम है। व्रत दमन नही, शमन है। जब व्यक्ति स्वेच्छा से व्रतों को ग्रहण नहीं करता है, तब शासन की ओर से दण्ड थोपा जाता है। स्वच्छन्दता को रोकने के लिए ही नियमों का विधान किया जाता है। इससे सुस्पष्ट है कि व्रत स्वाधीन है, स्वेच्छाधीन है एवं स्वव-स्वीकृत है। आचार्य पतंजलि ने योग साधना के लिए यम और नियम पर अत्यधिक बल दिया है। यम और नियम- दोनों ही व्रत हैं। जैनाचार्यों ने योगसाधना और आत्मसाधना के लिए व्रतों का पालन आवश्यक माना है, क्योंकि व्रतपालन के माध्यम से साधना का विकास एवं उसकी पूर्णता होती है। 71 यह अनुभवसिद्ध सत्य है कि जब तक मानव किसी प्रकार का व्रत या नियम ग्रहण नहीं करता है, तब तक उसका मन अस्त-व्यस्त रहता है, जबकि प्रतिज्ञाबद्ध व्यक्ति निश्चल हो जाता है। पाश्चात्य-शिक्षा और संस्कृति में पलने वाले लोगों का यह मानना है कि जीवन में व्रत की कोई आवश्यकता नहीं है। व्रतों का ग्रहण करना एक प्रकार से इच्छाओं का दमन करना है, अपने-आपको बन्धन में आबद्ध करना है। चूंकि बन्धनमय जीवन नीरस बन जाता है अतः व्रत ग्रहण करना अनावश्यक है। कुछ चिन्तकों का यह अभिमत है कि नियमों का पालन करना उचित है किन्तु उसके लिए व्रत लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि व्रत लेने के पश्चात् कोई बाधा उपस्थित हो गई, तो उस समय व्रत बन्धन कारक बन जाएगा, इसलिए जानबूझकर अपने आपको बन्धन में डालना उचित नहीं है। इस विषय में अनुभव कहता है कि व्रत ग्रहण करने के सम्बन्ध में जो तर्क दिए जाते हैं, वे निर्बल मन के प्रतीक हैं। जबकि व्रत का स्वीकार स्वेच्छा से होता है। व्रत ग्रहण मानव मन की इच्छा पर निर्भर है। कोई भी व्रत हठात् नहीं दिया जाता वह तो स्वेच्छा से ही ग्रहण किया जाता है। कुछ समय के लिए यह स्वीकार भी कर लिया जाए कि व्रत बन्धन है, पर यह बन्धन अपनी इच्छा का
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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