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36... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
* मध्याह्नकालीन श्रावकचर्या एवं पूजा के सम्बन्ध में योगशास्त्र और आचारदिनकर का एकमत है। इनमें श्रावक की मध्याह्नचर्या का प्रतिपादन करते हुए बतलाया है कि वह आवश्यक व्यापार से निवृत्त होने के बाद पूजा-विधि करें। उसके बाद भोजन करें, फिर धर्म चर्चा करें। जबकि पंचाशक प्रकरण में व्यापार कार्य से निवृत्त होने के पश्चात भोजन करने का निर्देश है। उसके बाद जिनमन्दिर में आगम वाणी का श्रवण कर, चैत्यवन्दन आदि करने का निरूपण है।
सुस्पष्टत: आचार्य हरिभद्रसूरि ने भोजन करने के उपरान्त मध्याह्नपूजा करने का सूचन किया है तथा आचार्य हेमचन्द्र ने मध्याह्न पूजा करने के पश्चात् भोजन करने का निर्देश किया है। वर्तमान में त्रिकाल-पूजा या मध्याह्नकालीन पूजा करने वाले गृहस्थ प्राय: पूजा करने के बाद ही भोजन करते हैं। आचारदिनकर में भोजन करने से पूर्व साधु को आहार हेतु निमंत्रित करने का भी उल्लेख किया गया है।
- पंचाशक आदि ग्रन्थों में त्रिकाल पूजा के समय कब, कौनसी पूजा की जानी चाहिए, यह विवरण भी स्पष्टत: पढ़ने को नहीं मिलता है। आचार्य हरिभद्र ने जिनेन्द्रदेव का सत्कार, चैत्यवन्दन आदि करना चाहिए इतना उल्लेख किया है। 'आदि' शब्द के स्पष्टीकरण हेतु पंचाशक टीका का अध्ययन आवश्यक है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रात:कालीन पूजा के सम्बन्ध में पुष्पादि द्रव्यों को चढ़ाने का एवं सायंकालीन पूजा के प्रसंग में धूप-दीप आदि करने का सूचन किया है। आचारदिनकर में प्रातः एवं मध्याह्न दोनों समय द्रव्यादिपूर्वक विशिष्ट पूजा करने का वर्णन है। इस विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि श्रावक को प्रात: एवं मध्याह्न काल में द्रव्य और भाव दोनों तरह की पूजा करनी चाहिए। वर्तमान परिपाटी में प्रात:काल में वासक्षेप पूजा, मध्याह्न काल में अष्टप्रकारी द्रव्यपूजा एवं चैत्यवन्दनरूप भावपूजा तथा संध्याकाल में आरती-दीपक करने का व्यवहार देखा जाता है। संभवत: यह परम्परा जीत व्यवहार से प्रचलन में आई हो क्योंकि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में तो इस प्रकार की निश्चित क्रियाविधि का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।
__ वर्तमान दृष्टि से मनन करें, तो त्रिकालपूजा करने वाले भाई-बहिन अपनी सुविधानुसार दर्शन-पूजन के लिए परमात्मा के द्वार पर पहुँचते हैं और एक ही