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जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...35 • फिर नमस्कार महामन्त्र का ध्यान करें, याद किए गए सूत्र पाठों का पुनरावर्तन करें तथा अन्य और भी उचित कृत्यादि सम्पन्न करें। • उसके बाद सन्ध्याकाल में आरती, धूप खेवन आदि के द्वारा सांयकालीन पूजा का कृत्य सम्पन्न करें • फिर दिवस सम्बन्धी अतिचारों का मिथ्यादुष्कृत दैवसिकप्रतिक्रमण करें।
• तत्पश्चात् श्रेष्ठ विधिपूर्वक स्वाध्याय-ध्यान आदि करें।68 . तदनन्तर सोने के पूर्व देव-गुरू आदि का स्मरण करें। • फिर यथाशक्ति स्त्री-सहवास का त्याग करें। • स्त्री-शरीर के स्वरूप का चिन्तन करें जैसे-स्त्री का शरीर वीर्य रक्त से उत्पन्न हुआ है, उसके नौ छिद्रों से मल पदार्थ बाहर निकलते हैं अत: मल-मूत्र से उसका शरीर अपवित्र है। अब्रह्म का त्याग करने वालों पर आन्तरिक प्रेम रखें। • फिर विधिपूर्वक शयन करें। • दूसरे दिन रात्रि बहुत शेष हो, तभी जग जाए। उस समय कर्म सिद्धांत आदि सूक्ष्म पदार्थों के स्वरूप का चिन्तन करें अथवा संसार की अनित्यता आदि के विषय में विचार करें अथवा क्लेश आदि पापकर्मों से कब और कैसे निवृत्ति होगी-इस विषय में शान्तचित्त से सोचें।69
निष्पत्ति- यदि श्रावक की दिनचर्या विधि का उपलब्ध ग्रन्थों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो कुछ तथ्य स्पष्ट होते हैं
• ऐतिहासिक दृष्टि से यह विधि आचार्यहरिभद्रकृत पंचाशक प्रकरण, आचार्यहेमचन्द्रकृत योगशास्त्र एवं वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में उल्लेखित है। पंचाशक प्रकरण आदि में प्रस्तुत विधि किंचिद् अन्तर के साथ प्राप्त होती है।
जैसे कि आचार्य हरिभद्रसूरिजी एवं आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने श्रावक के लिए प्रात:कालीन षडावश्यक क्रिया करने का स्पष्ट निर्देश नहीं किया है, जबकि आचार्य वर्धमानसूरि ने चैत्यवंदन (दिन का पहला चैत्यवंदन) करके प्रतिक्रमण करने का स्पष्ट उल्लेख किया है। हां! सन्ध्याकालीन षडावश्यक का उल्लेख तीनों ग्रन्थों में समान रूप से है।
* आचार्य हरिभद्र एवं आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक की दिनचर्या के क्रम में मध्याह्नकालीन पूजा करने के पूर्व एक बार ही न्यायोचित व्यापार करने का निर्देश किया है, जबकि आचारदिनकर में दो बार व्यापार करने का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि मध्याह्नकाल में धर्मचर्चा आदि करने के पश्चात् पुनः व्यापारादि में प्रवृत्त होवें।