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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...39 उस काल में भी संस्कार सम्बन्धी आयोजन होते थे। यदि हम आगमकाल एवं अर्वाचीनकाल की पारस्परिक तुलना करें तो यह पाते हैं कि जैन आगम साहित्य में 1. कुल स्थिति(जन्म) 2. चन्द्र -सूर्य दर्शन 3. नामकरण 4. अन्नप्राशन 5. कर्णवेधन 6. चूलोपनयन 7. गर्भाधान 8. विद्याध्ययन 9. विवाह 10. अन्त्य-इस प्रकार कुल दस के लगभग ही संस्कारों का वर्णन प्राप्त होता है, जबकि आचारदिनकर (15वीं शती) आदिपुराण (9 वीं शती) आदि में सोलह प्रकार के संस्कारों का विवेचन है।
दूसरा तथ्य यह स्मरणीय है कि जैन आगम ग्रन्थों में कुछ ऐसे संस्कारों का नामोल्लेख भी हआ है जैसे- धर्मजागरण, प्रतिवर्धापन, प्रचंक्रमण, संवत्सर प्रतिलेखन आदि जिनका अर्वाचीन ग्रन्थों में कहीं कोई विवरण नहीं है तथा वर्तमान परम्परा में भी वे संस्कार प्रचलन में नहीं हैं। अर्थवत्ता की दृष्टि से ये संस्कार उपयोगी प्रतीत होते हैं, तदुपरान्त इनका विलोप क्यों, किस स्थिति में हुआ, यह अवश्य विचारणीय है।
तीसरा तथ्य, तुलनात्मक दृष्टि से यह जानने योग्य है कि उपर्युक्त आगम ग्रन्थों में प्राय: निर्दिष्ट संस्कारों का नामोल्लेख मात्र ही हुआ है। उनमें इतना सूचन अवश्य मिलता है कि ये संस्कार महोत्सव पूर्वक सम्पन्न किए गए, किन्तु उन संस्कारों को सम्पन्न करने की विधि क्या थी? उस काल में ये संस्कार किस प्रकार निष्पन्न किए जाते थे? उनका मौलिक स्वरूप क्या था? इत्यादि विषयक कोई चर्चा उनमें उपलब्ध नहीं है, केवल नामकरण संस्कार की सामान्य चर्चा अवश्य देखने को मिलती है।
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये संस्कार किस प्रकार सम्पन्न किए जाते थे, तत्सम्बन्धी कोई वर्णन आगम युग तक उपलब्ध नहीं होता है।
. इसके अनन्तर यदि हम आगमेतरकालीन नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीकापरक ग्रन्थों का आलोड़न करते हैं, तो उनमें भी संस्कार सम्बन्धी विधिविधान की कोई विवेचना देखने को नहीं मिलती है। यदि हम प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों के आलोक में प्रस्तुत विषय का शोध करते हैं, तो दिगम्बर परम्परा में एकमात्र कृति आदिपुराण (जिनसेन रचित) में सोलह संस्कारों का विधिवत स्वरूप अवश्य देखने को मिलता है, परन्तु वह विवरण अति संक्षेप में है। साथ ही इस परम्परा में संस्कार सम्बन्धी विधि-विधानों का निरूपण करने