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40...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन वाला एकमात्र यही ग्रन्थ उपलब्ध होता है।
श्वेताम्बर परम्परा की भी कुछ ऐसी स्थिति है। इस परम्परा में भी संस्कार विषयक विधि-विधानों की विवेचना करने वाला एकमात्र ग्रन्थ आचारदिनकर है। इस आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि आदिपुराण और आचारदिनकरये दोनों ग्रन्थ प्रस्तुत विषय की अपेक्षा से आदि एवं अन्तिम ग्रन्थ हैं, किन्तु इस विषय में इतना अवश्य ध्यान रखना होगा कि पूर्वोक्त सोलह संस्कारों में से व्रतारोपण एवं अन्त्य-ये दो संस्कार कई ग्रन्थों में चर्चित हुए हैं। वर्तमान परम्परा में भी अन्य संस्कारों की अपेक्षा ये दोनों संस्कार विशेष रूप से प्रचलित हैं, अत: प्रारम्भ के चौदह संस्कारों के विषय में ही पूर्वोक्त कथन स्वीकारना होगा।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संस्कार मानव जीवन निर्माण एवं सम्यक निर्देशन का एक आवश्यक विधान है। इसके माध्यम से मानव समाज में उच्च एवं नैतिक आदर्शों की स्थापना होती है। पारस्परिक सम्बन्धों में मजबूती आती है। विभिन्न स्तरों पर मौलिक मूल्यों की स्थापना होती है इसी कारण किसी न किसी रूप में समाज के हर वर्ग में संस्कारों की अहम् भूमिका देखी जाती है जिनका स्पष्टीकरण आगे के अध्यायों में करेंगे। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृत हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे, पृ.105 2. कोषीतकी, 2/6 3. छान्दोग्य, 4/16/2-4 4. बृहदारण्यक, 6/3/1 5. संस्कार अंक, जनवरी 2006, पृ. 155 6. अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा,
उपादान, भव, जाति और जरा-मरण। 7. निसीर्ग संस्कार विनीत इत्यासौ नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्। रघुवंश- 3/35 8. संस्कार वत्येव गिरा मनीषी तथा स पूतश्च विभूषितश्च कुमारसंभव- 1/28 9. प्रयुक्त संस्कार इवाधिक बभौ। रघुवंश- 3/8 10. स्वभावसुंदरं वस्तु न संस्कारमपेक्षते। शाकुन्तल- 7/33 11. संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः। तर्कसंग्रह 12. कार्यः शरीरसंस्कारः पावन: प्रेत्य चेह च। मनुस्मृति 2/26