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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...37 जैसे- तिलक लगाना, कंकण बांधना, दही-अक्षत आदि के द्वारा मांगलिक शकुन करना और मंगलोपचार के रूप में शान्तिकर्म (पापोपशमन क्रिया) करना आदि का भी इसमें निरूपण हुआ है। इससे सूचित होता है कि जैन परम्परा में इन संस्कारों का अपना मौलिक अस्तित्व भी रहा है, चाहे वे लोकाचार के रूप में ही रहे हों।
जब हम ज्ञाताधर्मकथासूत्र का अनुशीलन करते हैं, तो उसमें कुछ संस्कारों का उल्लेख इस प्रकार उपलब्ध होता है। जैसे- 'उस बालक के मातापिता ने पहले दिन जातकर्म (नाल काटना आदि) कृत्य किया। दूसरे दिन जागरिका (रात्रि जागरण) किया। तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य का दर्शन करवाया। बारहवें दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुएँ तैयार करवाई तथा स्वजन-परिजन नगरजन-श्रेष्ठजन आदि को सह आमंत्रित कर भोजन करवाया, उनका वस्त्र, गंध, माल्यादि से सत्कार किया। उसके बाद धारिणी के दोहद के अनुरूप गुण निष्पन्न नाम रखा। जब बालक आठ वर्ष का हुआ तब माता-पिता ने शुभ तिथि, शुभ करण और शुभ मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा।72 यहाँ ज्ञातव्य है कि इस ग्रन्थ में श्रेणिक महाराजा के सुपुत्र मेघकुमार के जन्म से सम्बन्धित ये संस्कार कहे गए हैं।
ज्ञाताधर्मकथासूत्र/3 में उपरोक्त संस्कारों का उल्लेख धन्ना सार्थवाह के सुपुत्र देवदत्त के सम्बन्ध में भी किया गया है। इसी के साथ सार्थवाह के सपत्र देवदत्त के अन्तिम संस्कार का भी प्रतिपादन हुआ है।74 इस प्रकार अवगत होता है कि ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में लगभग छह प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। ___ जब हम प्रश्नव्याकरणसूत्र का अवलोकन करते हैं, तो वहाँ कुछ संस्कारों को शुभ मुहूर्त के दिन करने का निर्देश प्राप्त होता है। यहाँ शुभ नक्षत्र आदि के नाम भी दिए गए हैं, किन्तु इस आगम में उपनयन आदि संस्कारों को अप्रशस्त माना गया है।75 ___इससे आगे बढ़ते हैं, तो औपपातिकसूत्र में अम्बड़ के उत्तरवर्ती भव का विवेचन करते हुए कुछ संस्कारों को निष्पन्न करने का उल्लेख किया गया है। वह सूत्र पाठ इस प्रकार है-“माता-पिता पहले दिन उस बालक का कुलक्रमागत पुत्र जन्मोचित अनुष्ठान करेंगे। दूसरे दिन चन्द्र-सूर्य दर्शनिका नामक जन्मोत्सव करेंगे। छठवें दिन रात्रि-जागरिका करेंगे। ग्यारहवें दिन अशुचि शोधन विधान से