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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता ... 35
अभ्यासजन्य प्रक्रिया है, क्योंकि दोषों का परिशोधन प्रयास पूर्वक ही होता है, जबकि स्वभाव व्यक्ति की सहज क्रिया है अतः संस्कार सहज रूप में हमारी जीवन शैली बने, यही अपेक्षित है।
संस्कार दो प्रकार के होते हैं। इस जन्म के संस्कार और पूर्वजन्म के संस्कार । मरणोपरान्त भी संस्कारों की परम्परा जन्म-जन्मान्तर तक चलती रहती है। कर्म संस्कार केवल व्यक्ति विशेष के जीवन से ही सम्बन्धित नहीं होता, वरन उसके कुटुम्ब एवं कुल पर भी संस्कारों का अमिट प्रभाव पड़ता है, अतः जीवन के साथ संस्कारों का घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा ये संस्कार भारतीय संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। व्यावहारिक स्तर पर संस्कार के अनेक प्रकार कहे जा सकते हैं, लेकिन वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्तर पर सोलह प्रकार के संस्कार माने गए हैं। आज के युग में इन संस्कारों का महत्त्व अवश्य ही कुछ कम हो गया है तथापि अब भी इनकी जड़ें सुदृढ़ और दूर तक फैली हुई हैं। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त संस्कारों की श्रृंखला किसी न किसी रूप में आज भी विद्यमान है।
स्वरूपत: व्यक्ति विशेष को सुसंस्कारित, संयमित एवं सदाचारी बनाने के लिए सोलह संस्कारों का आरोपण किया जाता है । इतना ही नहीं, इन संस्कारों का आरोपण लौकिक, आसुरिक एवं भौतिक दुष्ट शक्तियों के निवारणार्थ भी किया जाता है। संस्कार आरोपण के समय उच्चरित किए जाने वाले मन्त्र अनेक दृष्टियों से लाभदायी होते हैं। उनमें विविध प्रकार की प्रभावोत्पादक और निरोधक शक्तियाँ निहित होती हैं। संस्कारों को सफलता के सोपान पर पहुँचाने में मन्त्र एवं उसके सम्यक प्रयोग की मुख्य भूमिका रहती है। अस्तु, किसी भी प्रकार का मन्त्र हो, उसकी अलौकिक शक्ति सर्व प्रसिद्ध है। इससे सिद्ध होता है कि जैविक और आत्मिक सुरक्षा के लिए संस्कार कर्म किए जाते हैं। दूसरा तथ्य यह है कि जिस व्यक्ति का संस्कार किया जाता है, चाहे वह गर्भवती नारी हो या गर्भस्थ शिशु, चाहे वह बालक हो या यौवनावस्था को प्राप्त व्यक्ति, परिवार और समाज में उसकी गरिमा बढ़ जाती है। उसे संयमी, सदाचारी और सुसंस्कारी की कोटि में गिना जाता है। वह संस्कृत व्यक्ति आवश्यक गुणों में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता हुआ असीम ऊँचाइयों को उपलब्ध कर लेता है। अब प्रश्न होता है कि जैन परम्परा में इन संस्कारों का प्रचलन कब से है ?