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________________ 34... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन सोलह संस्कारों का जो क्रम निर्दिष्ट किया गया है, उसमें दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा की अपेक्षा काफी कुछ हेर-फेर है, जिसका स्पष्टीकरण पूर्वोक्त सूची का अवलोकन करने से स्वत: हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं वैदिक परम्परा में सोलह संस्कार सम्बन्धी संख्या की एकरूपता होते हुए भी नाम एवं क्रम में अन्तर है। जैनागमों में संस्कारों की विकास यात्रा , यह बहुविदित है कि विश्व की तमाम प्राचीन एवं सुसभ्य संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस संस्कृति के निर्माता सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु विशिष्ट ढंग से जीवन जीने वाले ऋषि महर्षि थे, जिन्होंने योग-साधना के बल पर सत्यं शिवं और सुन्दरं का साक्षात्कार किया था। हमें अपनी संस्कृति के प्रति गौरव होना चाहिए। इस संस्कृति का अस्तित्व प्राचीनकाल से लेकर अद्य पर्यन्त यथावत् रहा हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि कुछ न कुछ ऐसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तत्त्व काम कर रहे हैं, जिनके प्रभाव से इस संस्कृति की श्रेष्ठता कायम है। वस्तुतः संस्कृति और संस्कार का अटूट सम्बन्ध है। सुसंस्कारों के आधार पर ही सभ्य संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कार के अभाव में संस्कृति का अस्तित्व विलीन हो जाता है। भारतीय संस्कृति की महिमा सत्संस्कारों के कारण ही विद्यमान है। संस्कृति और संस्कार दोनों एकार्थवाची हैं। व्याकरण की दृष्टि से भी दोनों ही शब्दों में ‘सम्' उपसर्ग पूर्वक 'कृ' धातु का व्यवहार है, अतः कहा जा सकता है कि संस्कार और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं। संस्कार प्रथम चरण है और संस्कृति दूसरा । सर्वप्रथम व्यक्ति के जीवन में नैतिकता, सामाजिकता, मानवीयता, सौहार्द्रता आदि गुण रूप संस्कार बनते हैं और उसके बाद ही वह संस्कृतिनिष्ठ व्यक्ति कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। संस्कारों का जन्म सहज नहीं होता है, अपितु अभ्यास से होता है। अनवरत अभ्यासोपरान्त हम किसी कार्य को करने के आदी होते हैं, तदनन्तर वे अभ्यास आदत बन जाते हैं । आदत के पश्चात जब वह प्रवृत्ति हमारी जीवन शैली में अनुस्यूत हो जाती है, तब उसे संस्कार की संज्ञा दी जाती है। फिर वह संस्कार सहज प्रवृत्ति में परिणत हो जाता है। तथ्य यह है कि संस्कार सतत
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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