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24... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
परम्परा के अन्य ग्रन्थ में देखने को नहीं मिलता है । यह ग्रन्थ विक्रम की 15वीं शती का है। इससे सुनिश्चित होता है कि जैन परम्परा में प्रचलित संस्कार हिन्दू परम्परा के ही मुख्य अवदान हैं।
संस्कारों का महत्त्व प्रस्तुत करते हुए वैदिक ग्रन्थों में कहा गया है कि “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते” अर्थात मनुष्य जन्म से द्विज नहीं होता, वह संस्कार के द्वारा द्विज बनता है इस सूक्ति में उपनयन आदि संस्कार के कर्म ही विवक्षित हैं। व्यापक दृष्टिकोण से मनन किया जाए तो इस वचन का तात्पर्य यह निकलता है कि जन्मतः मनुष्य पशु या पामर है और वह संस्कार द्वारा ही संस्कारी मनुष्य बनता है।
संस्कार का एक अर्थ चमक या पालिश है। इसका मतलब है कि संस्कार बाहरी सफाई या शुद्धि नहीं करते, अपितु मानव हृदय की सफाई करते हैं, जिसके कारण मनुष्य का रहन-सहन, भावना - बुद्धि सभी में सम्यक परिवर्तन आता है। दूसरे शब्दों में, यों कह सकते हैं कि जिस शिक्षा या प्रक्रिया से मनुष्य में सामाजिक एवं आध्यात्मिक गुणों का विकास होता हो वह संस्कार है। इन संस्कारों का महत्त्व इसलिए भी अधिक है कि इस पद्धति द्वारा दोषापनयन और गुणाधान दोनों का एक साथ योग होता है । इस सम्बन्ध में अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे हीरे और जवाहरात बाजार में जिस स्थिति में देखे जाते हैं, उस रूप में वे खानों से नहीं निकलते हैं । उनको खराद पर चढ़ाया जाता है, तब वे निखरते हैं। उनकी शोभा विधिवत संस्कारों द्वारा ही बढ़ती हैं। इसी तरह पारे का जारण-मारण करके उसे विधि पूर्वक संस्कारित किया जाता है, उसके बाद ही उससे संजीवनी रसायन बनाया जाता है। उद्यान को सुन्दर वृक्षों से सुशोभित करने के लिए माली को उसकी हर तरह से देखभाल करनी पड़ती है। वह खाद, पानी, काट-छांट आदि अनेक प्रक्रियाओं द्वारा पौधे को मनचाहे रूप में विकसित कर सकता है। जहाँ इस प्रकार के संस्कार करने वाला माली नहीं होता, वहाँ पौधे कुरूप, अस्त-व्यस्त और विकृत स्थिति में पड़े रहते हैं। यही बात मनुष्य को संस्कारित करने के विषय में समझनी चाहिए। हिन्दू परम्परा में जन्म से शूद्र(तुच्छ) प्रवृत्ति एवं हीनकर्म वाले व्यक्ति को सोलह बार संस्कार करके उसे ब्राह्मण के योग्य उच्चकुलीन बनाया जाता है।