________________
संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता ....
.23
विवाह के द्वारा अग्निहोत्र तथा दर्श- पौर्णमास आदि याग करने के योग्य बन जाता है, क्योंकि सपत्नीक मनुष्य ही होम आदि अनुष्ठान कर सकता है। वस्तुतः इन संस्कारों के द्वारा अपवित्रता रूप पापों से निवृत्ति और पवित्रता रूप पुण्य का प्रादुर्भाव होता है तथा मन, वाणी और शरीर सुसंस्कारित बनते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन संस्कारों के प्रयोजन एवं उद्देश्य यथार्थ थे। अनुभूति के स्तर पर खरे थे। देश - कालगत परिस्थितियों के आधार पर इन संस्कार कर्मों की क्रिया विधियों एवं अनुष्ठानों में उतार-चढ़ाव आते रहे। आज कुछ संस्कार ही अस्तित्व के रूप में मौजूद रह गए हैं। परमार्थतः सोलह संस्कारों के द्वारा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों को सुदृढ, सशक्त और सुविकसित किया जाता है। साथ ही संस्कारित व्यक्ति में परोपकार, मानवीयता, सहृदयता, व्यावहारिकता निःस्वार्थ भावना आदि गुणों का आरोपण किया जाता है तथा गृहस्थ जीवन एवं व्रती जीवन की अवधारणाओं से परिचित कराया जाता है। एक दृष्टि से देखा जाए तो इन संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति जन्म, जीवन और मृत्यु-तीनों को सुधार लेता है ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन संस्कारों की प्रासंगिकता विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। जहाँ आधुनिक काल में व्यक्ति की मनोवृत्तियाँ दूषित होती जा रही हैं और कुसंस्कारों का प्रभाव हावी होता जा रहा है, वहाँ उनके निराकरण एवं स्वस्थ जीवन शैली की स्थापना के साथ ही समाज के चहुँमुखी विकास के लिए ये अनिवार्य अनुभूत एवं निश्चित परिणामी है ।
विभिन्न क्षेत्रों में संस्कारों का महत्त्व
हिन्दू परम्परा में संस्कारों का महत्त्व सर्वाधिक रहा है। इस परम्परा में आज भी कईं संस्कार मूल विधि के अनुसार निष्पादित किए जाते हैं। निरपेक्ष दृष्टि से विचार करें, तो संभवतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हिन्दू परम्परा के प्रभाव से ही जैन परम्परा में संस्कारों का अस्तित्व है। सामान्य रूप से विचार करें तो कल्पसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय, औपपातिक आदि आगम ग्रन्थों में चन्द्र-सूर्य दर्शन, उपनयन, नामकरण, विद्यारम्भ आदि संस्कारों को निष्पन्न किए जाने के उल्लेख स्पष्टतः मिल जाते हैं किन्तु आचारदिनकर में संस्कारों की संख्या एवं क्रम जिस रूप में उल्लिखित हैं वैसा वर्णन श्वेताम्बर