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________________ 22...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन आध्यात्मिक ध्येय से अनुप्राणित हो गईं हैं। इससे उस व्यक्ति के विचारों में भी अद्भुत परिवर्तन हो जाता था तथा उसकी गतिविधियाँ आध्यात्मिकता की ओर बढ़ने लगती थीं। उस समय संस्कार कर्म का वातावरण इतना प्रभावी होता था कि उसके फलस्वरूप व्यक्ति अनायास ही महसूस करता कि जैसे कोई अदृश्य वस्तु उनके समस्त व्यक्तित्व को पवित्र कर रही हो। इस प्रकार संस्कारों द्वारा व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता था, अत: वे संस्कार उपचार मात्र नहीं थे। हिन्दु धर्म के अनुयायियों को यह विश्वास था कि संस्कारों का विधियुक्त अनुष्ठान करने पर व्यक्ति दैहिक बन्धन से मुक्त होकर मृत्यु के पार हो जाता है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि जो व्यक्ति विद्या और अविद्या-दोनों को जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या द्वारा अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।44 मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय में प्रोक्त संस्कारों का सामान्य प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि गर्भाधान आदि संस्कारों द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों का शरीर इहलोक और परलोक में पवित्र कार्य करने वाला बनता है। गर्भकालीन तीन संस्कारों तथा जातकर्म, चूडाकर्म और उपनयन आदि संस्कारों के समय किए जाने वाले होमों से बीज और गर्भ सम्बन्धी द्विजों की अशुद्धियाँ नष्ट हो जाती हैं और वेद मन्त्रों के प्रभाव से मन में शुभ संस्कारों का संचय होता है। वेदारम्भ द्वारा विद्या ज्ञान से, विवाह द्वारा पत्रोत्पत्ति से, पंच महायज्ञों एवं अग्निष्टोमादि यज्ञों के अनुष्ठान से ब्राह्मण आदि के शरीरस्थ जीव को ब्रह्म प्राप्ति योग्य किया जाता है। स्मृति संग्रह में गर्भाधान आदि का विशेष प्रयोजन बतलाते हए कहा गया कि गर्भाधान संस्कार से बीज सम्बन्धी और गर्भवास की मलीनता सम्बन्धी दोष नष्ट होते हैं। पुंसवन संस्कार से कन्या शरीर न बनकर पुत्र शरीर का निर्माण होता है। सीमन्त संस्कार द्वारा गर्भाधान का फल प्राप्त होता है। जातकर्म संस्कार से गर्भस्थ जीव द्वारा माता के आहार रस को पीने पर उत्पन्न दोष नष्ट हो जाते हैं तथा आयु और तेज की वृद्धि होती है। नामकरण से व्यवहार की सिद्धि होती हैं। निष्क्रमण संस्कार द्वारा सूर्य भगवान का मन्त्र पूर्वक दर्शन कराने से आयु और लक्ष्मी की वृद्धि होती है। अन्नप्राशन से माता के गर्भ में मलिनता भक्षण का जो दोष लगता है वह शुद्ध हो जाता है। चूडाकर्म का प्रयोजन आयु और तेज की वृद्धि करना है। उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन का अधिकारी बनता है।
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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