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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...21 रंग अपेक्षित हैं, उसी प्रकार चारित्र निर्माण के लिए भी विभिन्न प्रकार के संस्कार आवश्यक होते हैं।
यदि हम व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से संस्कार के प्रयोजनों पर दृष्टिपात करें, तो कई तथ्य स्पष्ट होते हैं। जैसे कि माता के गर्भ में जीव के स्थिर होने पर पुंसवन नामक संस्कार करवाया जाता था। वह गर्भिणी के शारीरिक एवं मानसिक दायित्वों को समझाने, उनका पालन करने एवं गर्भस्थ शिशु के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के उद्देश्य से था। जब बालक कुछ समझने योग्य हो जाता था, तब उपनयन संस्कार किया जाता था। वह वैयक्तिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का था। उस संस्कार के अवसर पर मानवोचित मर्यादाओं का पालन करने एवं दुराचरणों का निषेध करने की शिक्षा दी जाती थी। जब स्त्री गर्भिणी होती थी, तो उसे दूषित प्रभावों से बचाए रखने के लिए इस प्रकार का व्यवहार किया जाता था ताकि जिसका गर्भस्थ शिशु पर सत्प्रकाश पड़े।42 नवजात शिशु को किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट न हो और उसका बुद्धि बल उत्तरोत्तर बढ़े, एतदर्थ आशीर्वाद दिए जाते थे। बालक के विकास हेतु उपयुक्त वातावरण उपस्थित करने के लिए समय-समय पर उत्सव मनाए जाते थे।43
चूड़ाकरण या मुण्डन संस्कार के बाद जब शिशु बाल्यावस्था को प्राप्त होता था, तब वैयक्तिक विकास के उद्देश्य से उसे विद्यालय भेजा जाता था और वहाँ उसे अपने निजी कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों से परिचित कराया जाता था। इस प्रकार विविध संस्कारों के माध्यम से शिशु का वैयक्तिक पक्ष परिष्कृत किया जाता था। इससे स्पष्ट होता है कि संस्कार कर्म का मुख्य प्रयोजन व्यक्तित्त्व निर्माण ही था। 5. आध्यात्मिक प्रयोजन
. यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर को नि:सार माना गया है, फिर भी शरीर ‘आत्ममन्दिर' है, साधना अनुष्ठान का माध्यम है, इसलिए यह बड़ा मूल्यवान है। यह आत्म मन्दिर संस्कारों से परिष्कृत (शुद्ध) होकर परमात्मा का निवास स्थान बन सके, यही संस्कारों का आशय है अतएव भारतीय परम्परा में संस्कार कर्म का अभ्युदय आध्यात्मिक विकास की भावनाओं को लेकर हुआ, ऐसा भी प्रतीत होता है। संस्कार द्वारा संस्कृत बना हुआ व्यक्ति यह अनुभव करता था कि अब यह जीवन संस्कारमय बन गया है और सम्पूर्ण दैहिक क्रियाएँ