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20... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
एवं परिमार्जन करना अनिवार्य है। 40 संस्कारों का अन्य प्रयोजन चारित्रिक विशुद्धि भी था, क्योंकि चारित्रिक विशुद्धि से सामाजिक चेतना प्रकट होती हैं। इस प्रकार संस्कार कर्म के पीछे कई प्रकार के सामाजिक प्रयोजन और भी थे। 3. नैतिक प्रयोजन
गौतमधर्मसूत्र में संस्कारों की संख्या चालीस बताई गई है। इसी के साथ आठ प्रकार के आत्मिक गुण कहे गए हैं। उनके नाम ये हैं- दया, क्षमा, अनसूया, शौच, शम, उचित व्यवहार, निरीहता और निर्लोभता । प्रस्तुत धर्मसूत्र में कहा गया है कि जिस व्यक्ति ने चालीस संस्कारों का अनुष्ठान कर लिया हो, किन्तु उसमें आठ आत्मगुण नहीं हैं, तो वह ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकता है, किन्तु जिसने कुछ संस्कारों को ही अनुष्ठित किया हो परन्तु आत्मा
आठ गुणों से युक्त है, तो वह ब्रह्मलोक में ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त कर लेता है। इससे फलित होता है कि संस्कार कर्म का प्रयोजन सामान्य न होकर विशिष्ट था। संस्कारों को केवल संस्कार रूप में करना - ऐसी धारणा संस्कार विधान में नहीं है, अपितु संस्कार के परिपाक से नैतिक गुणों की अभिवृद्धि होती है अतः संस्कार में जीवन के प्रत्येक सोपान के लिए व्यवहार के नियम धर्मशास्त्रज्ञों ने निर्धारित किए। उस समय जीवन प्रगति के लिए कई नियम निर्धारित हो चुके थे जैसे- गर्भिणीधर्म, अनुपनीतधर्म, ब्रह्मचारीधर्म, स्नातकधर्म आदि। 41 इन नियमों में नैतिक विकास के लक्षण प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हैं तथा वे लक्षण व्यक्ति की नैतिक प्रगति को सूचित करते हैं ।
4. वैयक्तिक प्रयोजन
मनुष्य का वैयक्तिक जगत परिष्कृत होना परमावश्यक है। इस दृष्टि से संस्कारों का प्रारम्भ हुआ, ऐसा माना जा सकता है। संस्कार कर्म को निष्पन्न करने के लिए व्यक्तित्व निर्माण की भावना प्रारम्भ से ही निहित थी। संस्कार वैयक्तिक विकास की विशिष्ट प्रक्रिया है। संस्कार जीवन के प्रत्येक भाग को व्याप्त कर लेते हैं। इन षोडश संस्कारों की नियोजना इस प्रकार की गई है कि व्यक्ति जीवन के प्रारम्भ से ही उनके प्रभाव में आ जाता है। संस्कार द्वारा व्यक्तित्व निर्माण का कार्य किस प्रकार हो सकता है ? इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार चित्रकर्म में सफलता प्राप्त करने के लिए विविध