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________________ संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...19 के प्रगतिशील चरण पर परिवार को होने वाला हर्ष, मृत्यु के अवसर पर होने वाला शोक इत्यादि को भोज तथा उपहारों के रूप में व्यक्त किया जाता है और यह सब कार्य संस्कार कर्म के रूप में ही सम्पन्न किए जाते हैं। इस प्रकार संस्कार कर्म का लौकिक प्रयोजन कई दृष्टियों से सिद्ध होता है। 2. सामाजिक प्रयोजन हिन्दू धर्म के मान्य ग्रन्थों मनुस्मृति, गुह्यसूत्रों आदि का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि पूर्व काल में संस्कार क्रिया का एक प्रयोजन सामाजिक उत्थान भी था। समाज विज्ञान की दृष्टि से संस्कारों का बड़ा महत्त्व है। सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा एवं चिरजीवंतता के लिए उनके प्रति निष्ठा एवं विश्वास परम आवश्यक है। सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठान इसके अनुपम माध्यम हैं। संस्कार इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। केवल विधि या नियम के द्वारा सामाजिक व्यवस्था स्थाई नहीं हो सकती, उसके लिए समाज के सदस्यों का सुसंस्कृत होना जरूरी है। किसी भी सामाजिक नियम अथवा व्यवस्था के पीछे शताब्दियों और सहस्राब्दियों के संस्कार काम करते हैं। सामान्यतया प्रत्येक मनुष्य में सामाजिकता का गुण सहज रूप से होता है तथापि देश अथवा जाति विशेष के नियमों एवं परम्पराओं के प्रति विश्वास प्रकट करने के लिए संस्कार करना आवश्यक है। संस्कार के आधार पर सामाजिक मूल्यों का विकास उत्तरोत्तर होता है। हिन्दुओं की सुदृढ़ सामाजिक व्यवस्था के पीछे उनके अपने नियमित और अनिवार्य संस्कार थे। __उस काल में उपनयन संस्कार को समाज और धार्मिक क्षेत्र में प्रविष्ट होने का एक प्रकार का प्रवेश-पत्र माना जाता था। यह संस्कार कर्म करने का मुख्य अधिकार ब्राह्मणों को प्राप्त था और शूद्रों के लिए वर्जित था।39 सामाजिक दृष्टि से विद्यार्थी जीवन का काल परिपूर्ण होने पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए समावर्तन संस्कार का अनुष्ठान करना आवश्यक था। इतना ही नहीं, वैदिक मन्त्रों द्वारा उपनयन संस्कार और विवाह संस्कार किए गए किसी भी व्यक्ति को सभी प्रकार के यज्ञों के अनुष्ठान करने का तथा समाज में अपनी विशिष्टता का अधिकार मिल जाता था। उस परम्परा में यह सिद्धान्त भी प्रचलित था कि प्रत्येक व्यक्ति उत्पन्न होते समय शूद्र होता है अत: पूर्ण विकसित आर्य होने के लिए उसका संस्कार
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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