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16... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
सकेगा, इसकी आशा भी नहीं रहती हैं। इसी कारण कुसंस्कारी होना मनुष्य का बहुत बड़ा दुर्भाग्य माना गया है।
इस महत्त्वपूर्ण समस्या पर हमारे संत- महर्षियों ने अनेकविध उपाय भी खोज निकाले हैं, जिनके द्वारा मानव का चेतन मन निर्मल, सुसंस्कृत एवं सन्तुलित हो सके। इस प्रक्रिया का नाम है - संस्कार कर्म । इन संस्कारों के माध्यम से समय-समय पर यह उपचार रूप संस्कार कर्म किया जाता है। इस उपचार द्वारा मनुष्य के मनोविकारों का शमन एवं सत्प्रवृत्तियों का विकास किया जा सकता है।28 वस्तुतः जीवन में सतत काम आने वाली सत्प्रवृत्तियों का बीजारोपण इन संस्कारों के समय ही होता है। यदि किसी बालक के सभी संस्कार समुचित वातावरण में सम्यक विधि से सम्पन्न किये जाते हैं, तो उसका व्यक्तित्व आनन्द-प्रमोद से भर उठता है, साथ ही मानसिक रोगों का नामोनिशान भी नहीं रहता है।
संस्कारों के मूलभूत प्रयोजन
मनुष्य जीवन को सशक्त, सक्रिय एवं प्राणवान बनाना जरूरी है। यह प्राणवत्ता संस्कार निर्माण द्वारा ही संभव है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि संस्कार निर्माण के पीछे मुख्य प्रयोजन क्या रहे होंगे? इनको सम्पादित करते समय बड़े पैमाने पर प्रयुक्त होने वाले विधि-विधानों का मुख्य ध्येय क्या रहा होगा ? संस्कार, उद्भव एवं निर्माण के समय क्या स्थिति रही होगी? किस वातावरण में ये संस्कार कर्म किए जाते थे ? संस्कारों का मुख्य प्रयोजन क्या होता था ? इत्यादि विषयों पर संक्षेप में प्रकाश डालना अपेक्षित है। हिन्दू परम्परा के अनुसार संस्कार विधान के निम्न प्रयोजन दृष्टिगत होते हैं।
1. लौकिक प्रयोजन
सर्वप्रथम अलौकिक शक्तियों के दुष्प्रभावों का शमन करने हेतु संस्कार कर्म की क्रिया प्रारम्भ हुई। उस समय लोगों में यह विश्वास था कि संस्कारों द्वारा अमंगल का निराकरण और मंगल की प्राप्ति की जा सकती है। जीवन को आसुरी शक्तियों से बचाया जा सकता है। उनमें भी निम्न उद्देश्य मुख्य थे
अशुभ प्रभावों का प्रतिकार - शुभ कार्यों में अमंगल की सतत आशंका रहती है अतः अशुभ प्रभाव के निवारण के लिए संस्कारों में कुछ विशेष कृत्य भी किए जाते हैं, अतएव हिन्दू धर्म में अमंगलकारी उपद्रवों से बचने के लिए