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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...13 मनोविज्ञान की यह मान्यता है कि मनुष्य के सुसंस्कार सामान्य उपदेशों या योग्य परामर्शों की अपेक्षा अनुकूल वातावरण में अधिक तीव्र गति से विकसित हैं अर्थात जीवन को संस्कारी बनाने के लिए उपदेशों या निर्देशों की आवश्यकता उतनी नहीं है, जितनी धर्म और सत्संग युक्त वातावरण की है।25
यह प्रमाण पुरस्सर है कि मन का स्वभाव अधोगामी है, अतएव वह अच्छी प्रेरणाओं को शीघ्र ग्रहण नहीं कर पाता है। नाटक, सिनेमा, टी.वी. आदि पर देखे गए दृश्यों का भला-बुरा प्रभाव दर्शक के मन पर अधिक पड़ता है। जहाँ तक बच्चों का प्रश्न है, संस्कारों की आवश्यकता उनके लिए विशेष होती है। बच्चे अधिक संवेदनशील होते हैं। उनके मानस पटल पर अच्छा-बुरा जो भी प्रभाव पड़ता है, वे वैसा ही आचरण करने लगते हैं अत: बच्चों को धार्मिक वातावरण का मिलना बहुत जरूरी है। अधिकांश संस्कार जन्म से लेकर युवावस्था तक की अवधि में ही सम्पन्न किये जाते हैं, इस दृष्टि से संस्कारों की प्रासंगिकता अपरिहार्य रूप से स्वीकृत है। चिंतकों के अनुसार बाल्यकाल की अवस्था को कच्ची मिट्टी की उपमा दी गई है। जैसे कच्ची मिट्टी को चाहे जिस रूप में परिवर्तित कर सकते हैं, चाहे जिस आकार में बदल सकते हैं, वैसे ही बच्चे को इच्छानुरूप सत्-असत् मार्ग की ओर ढ़ाल सकते हैं। उसमें बननेबिगड़ने, गिरने-संवरने की पूर्ण संभावनाएँ रहती है। उसे जैसा वातावरण या संयोग मिलता है, वह तदनुरूप ढ़ल जाता है।
वर्तमान युग में बढ़ रही अराजकता, अत्याचार, भ्रष्टाचार, पापाचार, लूटमार आदि के वातावरण से सन्तान को बचाना अति आवश्यक हो गया है। संस्कार ही ऐसे खतरों से सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं। आज स्थितियाँ जिस दौर से गुजर रही हैं, उस दृष्टि से संस्कारों का पल्लवन करना, संस्कारमय वातावरण उपस्थित करना, सद्गुरुओं का सहवास करना, सत्संग का योग करना, धार्मिक आयोजनों को सम्पादित करना बहुत जरूरी है। वातावरण का बच्चों पर अमिट प्रभाव पड़ता है। बच्चे जिस वातावरण में रहते हैं, जैसे संयोगों में रहते हैं, जिस माहौल में फलते-फूलते हैं, उसका 90 प्रतिशत प्रभाव उनकी मनो भूमिका पर पड़ता है।
'यूजेनिक्स' के शोध में लगे वैज्ञानिकों ने विश्वभर में प्रचलित सभी धर्म सम्प्रदायों में किए जाने वाले संस्कारों पर गहन शोध करना प्रारम्भ किया है।