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12... जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन
यदि हमें वास्तविक सुन्दरता को प्राप्त करना है, तो संस्कारवान बनना होगा। अपने मन एवं मस्तिष्क को बुरे विचारों, दूषित भावनाओं से मुक्त रखना होगा तथा उनके स्थान पर दैवीयभावों का प्रतिष्ठापन करना होगा । सुसंस्कारिता न केवल व्यक्तित्व में चार चाँद लगाती है, वरन मनुष्य को नर से नारायण बनाने एवं महानता अर्जित करने में भी सहायक होती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में संस्कारों पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। भारतीय ऋषिसन्तों ने अनगढ़ व्यक्तित्व को सुगढ़ बनाने के लक्ष्य से ही संस्कारों का व्यवस्थापन किया है। सोलह संस्कारों के सृजन का मूल प्रयोजन था मानवी चेतना पर सूक्ष्म विधि से उन आदर्शों की प्रतिष्ठापना करना, जिनके द्वारा व्यक्तित्व परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बन जाए यह प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है । प्राचीन युग से व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठ एवं शालीन बनाने में संस्कारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संस्कारों की प्रासंगिकता
सत्संस्कारों की आवश्यकता सार्वकालिक रही है। वर्तमान में भी ऐसे आधार ढूंढे जा रहे हैं, जो व्यक्ति को शालीन एवं सुसभ्य बनाते हों। शिष्टाचार सिखाने के लिए एटीकेट्स विद्यालय खोले जा रहे है । संस्कारों का बीजारोपण करने के लिए बहुत से प्रयास जारी हैं। ये सभी प्रयास इस बात के प्रमाण हैं कि संस्कारों की आवश्यकता इन दिनों भी पूर्वकाल की तरह ही अनुभव की जा रही है। श्रीरामशर्मा आचार्य के अनुसार इटली के मेंडले नामक विद्वान ने संस्कार क्रिया पर आधारित एक शास्त्र का निर्माण किया है, जिसे यूजेनिक्स कहा गया है। हिन्दी में इसे ‘सुसन्तान अभिजनन शास्त्र' कहते हैं। मेंडले के कार्यों से प्रेरणा लेकर इस सदी के आरम्भ में इंग्लैण्ड के विद्वान् 'सरफ्रानिक्सगाल्टन' ने अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग लन्दन विश्वविद्यालय को इस क्षेत्र में शोध कार्य के लिए दिया है। इस विश्वविद्यालय में 'युजेनिक्स' के शोध कार्य में अनेकों विद्वान लगे हुए हैं। यूरोप के अन्य देशों में भी यह शास्त्र लोकप्रिय हो रहा है। यूजेनिक्स में वंश परम्परा, विवाह आदि के सम्बन्ध में विस्तृत शोध चल रहा है। उस क्षेत्र में शोध कर रहे विद्वानों का कहना है कि सन्तति को सुसंस्कारी एवं शालीन बनाने में प्रत्यक्ष उपदेशों एवं प्रशिक्षणों का कम, धार्मिक संस्कारों का अधिक योगदान होता है।