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________________ 6...जैन गृहस्थ के सोलह संस्कारों का तुलनात्मक अध्ययन शास्त्रोपदिष्ट संस्कार करने से व्यक्ति के मन में सात्विकता एवं सर्वजनप्रियता का भाव प्रस्फुटित होता है तथा उसको वास्तविक सुख शान्ति का अनुभव होता है। संस्कार अवचेतन मन का उदात्तीकरण करते हैं तथा कर्मशुद्धि, भावशुद्धि और विचारशुद्धि के साथ-साथ अभ्युदय एवं निःश्रेयस के हेतु होते हैं। यह ज्ञातव्य है कि संस्कार जितनी अल्प आय में या जितना जल्दी निश्चित समय पर किए जा सकें, उतने ही सफल होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है-“यन्नवे भाजने लग्न: संस्कारो नान्यथा भवेत्' अर्थात जिस प्रकार नए पात्र में किया गया संस्कार फिर नहीं बदलता, उसी प्रकार काय संरचना के समय किया गया संस्कार स्थायी रहता है, परन्तु आजकल संस्कार प्रयोग की पद्धति धीरे-धीरे बंद होती जा रही है। सामान्यतया मनुष्य जीवन में दो प्रकार से परिवर्तन होते हैं-एक परिस्थिति के आधार पर और दूसरा मनुष्यों के अपने पुरुषार्थ के आधार पर। उनमें जीवन को टिकाए रखने हेतु परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन प्राणीमात्र के जीवन में होते रहते हैं। मनुष्य एक प्राणी है, अत: उसके जीवन में परिस्थिति के अनकल परिवर्तनों का होना स्वाभाविक है, किन्तु परिस्थिति के आधार पर होने वाले परिवर्तन संस्कार नहीं कहलाते हैं। जब मनुष्य सोच-समझ के साथ मन, बुद्धि, चेतना आदि का विकास करता है तो वह विकास ही संस्कार की कोटि में गिना जाता है, अतएव शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं चैतसिक विकास रूप परिवर्तन 'संस्कार' है। स्वरूपतः मनुष्य माता के गर्भ से शिशु के रूप में जब जन्म लेता है, तब वह अपने साथ दो प्रकार के संस्कारों को लेकर आता है। पहले प्रकार के संस्कार वे हैं, जो वह जन्म-जन्मातरों से अपने साथ लेकर आता है और दूसरे प्रकार के संस्कार वे हैं, जिन्हें वह वंशानुक्रम से अपने माता-पिता द्वारा प्राप्त करता है। ये संस्कार अच्छे और बुरे दोनों हो सकते हैं। इस तरह एक व्यक्ति के संस्कार केवल उस जीवन से ही सम्बन्धित नहीं होते हैं, वरन उसके कुटुम्ब एवं कुलगत संस्कारों का भी उस पर अमिट प्रभाव पड़ता है, जिसे हम कुल परम्परा या कुल-संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों के अनुरूप ही मनुष्य का चारित्र बनता है और विचारों के अनुरूप संस्कार बनते हैं। सुसंस्कारी बनने के लिए विचारों में परिवर्तन लाया जाना अत्यावश्यक है। जब तक विचार संस्कार नहीं बन
SR No.006239
Book TitleJain Gruhastha Ke 16 Sanskaro Ka Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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