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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता... 5
• आद्यशंकराचार्य लिखते हैं- "संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणाद्यानेन वा स्याद्योषाप नयनेन वा" अर्थात जिस व्यक्ति का संस्कार किया जाता है, उसमें गुणों का आरोपण करने के लिए अथवा उसके दोषों का परिमार्जन करने के लिए विशिष्ट कर्म करना संस्कार है। 19
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अंगिरा
गौतमधर्मसूत्र के उल्लेखानुसार जिससे दोष हटते हैं और गुणों का उत्कर्ष होता है, वह संस्कार है। • मनु का कथन है - जो शरीर को शुद्ध करके उसे आत्म निवास के उपयुक्त बनाते हैं, वे संस्कार कहलाते हैं। 20 के अनुसार 'जिस प्रकार अनेक रंगों से चित्रकार चित्र बनाता है, उसी प्रकार विधि पूर्वक किए गए संस्कारों द्वारा ब्राह्मण्य (ब्राह्मणत्व या ब्रह्मत्व) सम्पादित होता है। संस्कार का अर्थ धार्मिक अनुष्ठान भी होता है, जिसे हिन्दू परम्परा में 'यज्ञ' कहा है।
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कालिकापुराण के अनुसार यह सम्पूर्ण संसार यज्ञमय है- “सर्वयज्ञमयं जगत्”। इस जगत में होने वाले समस्त कर्म यज्ञमय हैं, जो सदा-सर्वदा सनातन रूप से यत्र-तत्र सर्वत्र होते रहते हैं जैसे - देवपूजा, अतिथिसत्कार, व्रत, तप, जप, स्वाध्याय, खान-पान आदि नित्यकर्म तथा उपनयन, विवाह आदि नैमित्तिक कर्म एवं पुत्रेष्टि, राज्य प्राप्ति आदि काम्यकर्म । ये सभी व्यवहार यज्ञ स्वरूप ही हैं अत: उन सभी संस्कारों का अनुष्ठान सविधि और सनियम करना चाहिए, तभी वे कल्याणदायी होते हैं। 21
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मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो संस्कार मन में प्रस्थापित आदर्श हैं, जो जीवन व्यवहार के नियामक और प्रेरक होते हैं। मनुष्य अपने जीवन में सत्-असत् का निर्णय इन आदर्शों के आधार पर ही करता है। मनुष्य में मानवोचित गुण कर्म एवं स्वभाव की प्रेरणा इन्हीं संस्कारों की देन है। यदि चारित्र वृक्ष है, तो संस्कार उसका बीज है। अवचेतन मन संस्कार नामक इस बीज का क्षेत्र है और अनुकूल परिवेश उसका हवा - पानी - धूप है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अवचेतन मन में प्रतिष्ठित संकल्प का नाम ही संस्कार है। इस संकल्प में अपरिमित सम्भावनाएँ निहित होती हैं। ये संकल्प इतने शक्तिशाली होते हैं कि वे केवल एक जन्म में ही नहीं, जन्मान्तर में भी गतिशील होते हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जिस प्रकार अनेक रंगों का उचित उपयोग करने पर चित्र में सुन्दरता एवं वास्तविकता आ जाती है, उसी प्रकार